कभी कभी कुछ घटनाएँ हमें कई बडे़ मुद्दों पर सोंचने को मजबूर कर देती हैं। पर शायद हम उनको गंभीरता से नहीं लेते और उसके दूरगामी परिणाम आने वाली पीढ़ी को झेलने पड़ते हैं। ऐसी एक नहीं बल्कि कई घटनाएँ हाल ही में भारत में घटी हैं और लगातार घट रही हैं जिसको अलग अलग करकें देखें तो शायद हर घटना की वजहें अलग अलग हैं पर इन सब में एक बात समान है कि ये सभी घटनाएँ शिक्षण संस्थानों में घट रहीं हैं। इन घटनाओं में कुछ को मैं यहाँ बताना चाहूँगा। पहली दो घटनाएँ जिसका मैं खुद गवाह रहा वह लखनऊ विश्वविद्यालय में घटी। विश्वविद्यालय में नार्थ जोन की महिला अंतरविश्वविद्यालय हाॅकी प्रतियोगिता चल रही थी। जिसमें 30 जनवरी की दोपहर को कुछ लड़कियों के साथ वहां के छात्रों ने छेड़खानी की। जिसको एक अखबार के फोटोग्राफर नें अपने कैमरे में कैद कर लिया। इसकी निंदा हर तरफ हुई। होनी भी चाहिए क्योंकि सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं। दूसरी घटना ठीक अगले दिन फिर घटी। इसबार की घटना को शायद किसी ने भी गौर नहीं किया पर मेरे लिए वो शर्मनाक घटना के समान ही थी। लखनऊ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन चल रहा था समय यही कोई शाम 6 बजे के करीब का रहा होगा। तमाम महाविद्यालयों के छात्र छात्राओं ने बेहतरीन कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया। 7 बजे के करीब कार्यक्रम खत्म हुआ और वहां की पहली महिला प्रोक्टर डॉ. निशी पांडे ने सभी छात्रों को तो वहां से शांती पूर्ण तरीके से जाने को कहा परन्तु लड़कियों को यह कहते हुए अपनी जगह बैठे रहने को कहा कि उनके जाने का इंतजाम किया गया है। मुझे यह सुनकर थोडा अटपटा तो लगा पर मैं भी अतिथि दीर्घा से उठा और बाहर आ गया। चूँकि मैं किसी का इंतजार कर रहा था तो वहीं कार में बैठा रहा। अचानक से पुलिस की एक बड़ी फौज जिसका नेतृत्व पुलिस के एक अधिकारी कर रहे थे उनके घेरे में वहां पंडाल में मौजूद 200 से अधिक लड़कियों को उनके छात्रावास ले जाया जा रहा था। समय का विशेष ध्यान रखें शाम का 7 बजके 30 मिनट हो रहा था। यह देख मुझे शर्म आई कि क्या लखनऊ शहर अभी भी इतना असुरक्षित है ? जबकि इसी शहर ने देश में पहली वीमेन पॉवर हेल्पलाइन 1090 की शुरुआत कर महिलाओं की रक्षा के लिए गंभीरता दिखलाई थी। तो क्या वह सब मात्र एक दिखावा है ? खैर इसके बाद तीसरी घटना हैदराबाद विश्वविद्यालय की है जिसके बारे में शायद अब देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जानता है। रोहित वेमुला की आत्महत्या और उसकी लिखी चिट्ठी। जिसने देश में दलित की स्थिति पर फिर से गंभीरता से चिंतन करने के लिए मजबूर किया है। हालाँकि कुछ तथ्यों में यह भी आया कि वह दलित छात्र नहीं था। वो जो भी था पर उसके खड़े किये गए सवाल शायद ज्यादा जरुरी हैं और उसकी मौत पर हो रही राजनीति सीधे तौर पर दुखद है। चौथी घटना दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की है जहाँ कुछ छात्र छात्राओं ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए और अफज़ल गुरु को शहीद का दर्जा दिया। इन घटनाओं के साथ ही तमाम विश्वविद्यालयों से शोध छात्राओं के साथ शोषण की खबरें, लड़कियों के पहनावे, वर्चस्व की लड़ाई, फर्जी डिग्री, खूनी संघर्ष आदि जैसी घटनाएँ लगातार सुनने को मिलती रहती हैं। मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है कि क्या वाकई यह कोई बड़ा बहस का मुद्दा नहीं है। उपरोक्त चार घटनाओं को जिनका मैंने जि़क्र किया अगर उन सभी पर गौर करें कि आखिर इसमें सही माएने में दोषी कौन है? भारत की राजनीति? विभिन्न क्षेत्रों से आये छात्र? विश्वविद्यालय प्रशासन? हमारी शिक्षण प्रणाली? या फिर स्मार्ट बन रहा देश? सवाल विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर भी उठता है आखिर छात्रों से सीधे सरोकार इन्हीं का होता है। आखिर यह कौन सी शिक्षण व्यवस्था है जहाँ अभी भी हम उन समस्याओं से जूझ रहें हैं जो आज से 50 साल पहले थी। विश्वविद्यालयों को नकारात्मक राजनीति में शामिल होने देना कितना उचित है? क्या ऐसी व्यवस्था की ओर जोर देने की ज़रूरत नहीं कि वहां के प्रशासन को इतनी शक्ति प्राप्त हो कि वह संस्थान में सकारात्मक सोंच से सिर्फ शिक्षा पर ध्यान दे सकें। जिस जगह से हम पढ़ कर देश में एकता, सुरक्षा, समानता का पाठ दुनिया भर को पढ़ाते हैं वहीं लड़कियों को इस तरह पुलिस के घेरें में जाने के लिए मजबूर होना। एक छात्र की मौत पर दलित राजनीति का खेल खेलना और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर संविधान व्यवस्था को खुली चुनौती देना कहाँ तक न्यायोचित है। अभिव्यक्ति की आजादी की परिभाषा को संसद और न्यायालय को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। इस बात पर भी चिंतन होना चाहिए कि छात्र हित के लिए बने तमाम छात्र संघठन कहीं वोट बैंक की राजनीति के लिए एक मोहरा मात्र तो नहीं हैं। संसद और न्यायालय को इस बात पर भी चिंतन करने की बहुत ज़रूरत है। खैर उम्मीद इस बात की कर सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के तमाम संगठन बने हैं जिसमें छात्रों और शिक्षकों के अलग अलग हैं, जबतक संसद या न्यायालय कोई नियम नहीं बना देते तबतक देश के भविष्य की इस नीव को सुरक्षित और गुणवत्ता परक बनाए रखने के लिए इन संगठनों को एक साथ बैठ कर खुद के लिए कुछ नियम बनाने होंगे वरना परिणाम आप सभी समझ ही रहे हैं। आखिरकार इस देश की हर स्थिति के लिए जो भी जिम्मेदार रहा है या रहेगा वो आप के ही मार्गदर्शन से वहां तक पहुँच रहा है। बुधवार, 10 फ़रवरी 2016
शिक्षण संस्थान खुद करें चिंतन
कभी कभी कुछ घटनाएँ हमें कई बडे़ मुद्दों पर सोंचने को मजबूर कर देती हैं। पर शायद हम उनको गंभीरता से नहीं लेते और उसके दूरगामी परिणाम आने वाली पीढ़ी को झेलने पड़ते हैं। ऐसी एक नहीं बल्कि कई घटनाएँ हाल ही में भारत में घटी हैं और लगातार घट रही हैं जिसको अलग अलग करकें देखें तो शायद हर घटना की वजहें अलग अलग हैं पर इन सब में एक बात समान है कि ये सभी घटनाएँ शिक्षण संस्थानों में घट रहीं हैं। इन घटनाओं में कुछ को मैं यहाँ बताना चाहूँगा। पहली दो घटनाएँ जिसका मैं खुद गवाह रहा वह लखनऊ विश्वविद्यालय में घटी। विश्वविद्यालय में नार्थ जोन की महिला अंतरविश्वविद्यालय हाॅकी प्रतियोगिता चल रही थी। जिसमें 30 जनवरी की दोपहर को कुछ लड़कियों के साथ वहां के छात्रों ने छेड़खानी की। जिसको एक अखबार के फोटोग्राफर नें अपने कैमरे में कैद कर लिया। इसकी निंदा हर तरफ हुई। होनी भी चाहिए क्योंकि सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं। दूसरी घटना ठीक अगले दिन फिर घटी। इसबार की घटना को शायद किसी ने भी गौर नहीं किया पर मेरे लिए वो शर्मनाक घटना के समान ही थी। लखनऊ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन चल रहा था समय यही कोई शाम 6 बजे के करीब का रहा होगा। तमाम महाविद्यालयों के छात्र छात्राओं ने बेहतरीन कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया। 7 बजे के करीब कार्यक्रम खत्म हुआ और वहां की पहली महिला प्रोक्टर डॉ. निशी पांडे ने सभी छात्रों को तो वहां से शांती पूर्ण तरीके से जाने को कहा परन्तु लड़कियों को यह कहते हुए अपनी जगह बैठे रहने को कहा कि उनके जाने का इंतजाम किया गया है। मुझे यह सुनकर थोडा अटपटा तो लगा पर मैं भी अतिथि दीर्घा से उठा और बाहर आ गया। चूँकि मैं किसी का इंतजार कर रहा था तो वहीं कार में बैठा रहा। अचानक से पुलिस की एक बड़ी फौज जिसका नेतृत्व पुलिस के एक अधिकारी कर रहे थे उनके घेरे में वहां पंडाल में मौजूद 200 से अधिक लड़कियों को उनके छात्रावास ले जाया जा रहा था। समय का विशेष ध्यान रखें शाम का 7 बजके 30 मिनट हो रहा था। यह देख मुझे शर्म आई कि क्या लखनऊ शहर अभी भी इतना असुरक्षित है ? जबकि इसी शहर ने देश में पहली वीमेन पॉवर हेल्पलाइन 1090 की शुरुआत कर महिलाओं की रक्षा के लिए गंभीरता दिखलाई थी। तो क्या वह सब मात्र एक दिखावा है ? खैर इसके बाद तीसरी घटना हैदराबाद विश्वविद्यालय की है जिसके बारे में शायद अब देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जानता है। रोहित वेमुला की आत्महत्या और उसकी लिखी चिट्ठी। जिसने देश में दलित की स्थिति पर फिर से गंभीरता से चिंतन करने के लिए मजबूर किया है। हालाँकि कुछ तथ्यों में यह भी आया कि वह दलित छात्र नहीं था। वो जो भी था पर उसके खड़े किये गए सवाल शायद ज्यादा जरुरी हैं और उसकी मौत पर हो रही राजनीति सीधे तौर पर दुखद है। चौथी घटना दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की है जहाँ कुछ छात्र छात्राओं ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए और अफज़ल गुरु को शहीद का दर्जा दिया। इन घटनाओं के साथ ही तमाम विश्वविद्यालयों से शोध छात्राओं के साथ शोषण की खबरें, लड़कियों के पहनावे, वर्चस्व की लड़ाई, फर्जी डिग्री, खूनी संघर्ष आदि जैसी घटनाएँ लगातार सुनने को मिलती रहती हैं। मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है कि क्या वाकई यह कोई बड़ा बहस का मुद्दा नहीं है। उपरोक्त चार घटनाओं को जिनका मैंने जि़क्र किया अगर उन सभी पर गौर करें कि आखिर इसमें सही माएने में दोषी कौन है? भारत की राजनीति? विभिन्न क्षेत्रों से आये छात्र? विश्वविद्यालय प्रशासन? हमारी शिक्षण प्रणाली? या फिर स्मार्ट बन रहा देश? सवाल विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर भी उठता है आखिर छात्रों से सीधे सरोकार इन्हीं का होता है। आखिर यह कौन सी शिक्षण व्यवस्था है जहाँ अभी भी हम उन समस्याओं से जूझ रहें हैं जो आज से 50 साल पहले थी। विश्वविद्यालयों को नकारात्मक राजनीति में शामिल होने देना कितना उचित है? क्या ऐसी व्यवस्था की ओर जोर देने की ज़रूरत नहीं कि वहां के प्रशासन को इतनी शक्ति प्राप्त हो कि वह संस्थान में सकारात्मक सोंच से सिर्फ शिक्षा पर ध्यान दे सकें। जिस जगह से हम पढ़ कर देश में एकता, सुरक्षा, समानता का पाठ दुनिया भर को पढ़ाते हैं वहीं लड़कियों को इस तरह पुलिस के घेरें में जाने के लिए मजबूर होना। एक छात्र की मौत पर दलित राजनीति का खेल खेलना और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर संविधान व्यवस्था को खुली चुनौती देना कहाँ तक न्यायोचित है। अभिव्यक्ति की आजादी की परिभाषा को संसद और न्यायालय को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। इस बात पर भी चिंतन होना चाहिए कि छात्र हित के लिए बने तमाम छात्र संघठन कहीं वोट बैंक की राजनीति के लिए एक मोहरा मात्र तो नहीं हैं। संसद और न्यायालय को इस बात पर भी चिंतन करने की बहुत ज़रूरत है। खैर उम्मीद इस बात की कर सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के तमाम संगठन बने हैं जिसमें छात्रों और शिक्षकों के अलग अलग हैं, जबतक संसद या न्यायालय कोई नियम नहीं बना देते तबतक देश के भविष्य की इस नीव को सुरक्षित और गुणवत्ता परक बनाए रखने के लिए इन संगठनों को एक साथ बैठ कर खुद के लिए कुछ नियम बनाने होंगे वरना परिणाम आप सभी समझ ही रहे हैं। आखिरकार इस देश की हर स्थिति के लिए जो भी जिम्मेदार रहा है या रहेगा वो आप के ही मार्गदर्शन से वहां तक पहुँच रहा है।
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