शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

क्या लड़कियों कि तरह रोते हो

मेरे पड़ोस मे रहने वाले महरोत्रा साहभ बडे ही खुश मिजाज़ के व्यक्ति है और जीवन से संतुस्ट भी है| उन्हे उपर वाले से किसी भी तरह की कोई शिकायत नहीं| और भला  हो भी क्यों उनके पास किसी चीस की कमी नहीं| अच्छी खासी बैंक की नौकरी| उनकी  धरम पत्नी भी स्कूल मे टीचर हैं| और कम संतान सुखी इंसान को मानने वाले मेहरोत्रा  साहब के सिर्फ एक लड़की है जो बारवीं कक्षा की छात्र है| मेहरोत्रा साहब आधुनिक सोंच रखते हैं उनकी माता को पोते की कमी हमेशा खलती है पर मेहरोत्रा साहब बेटा बेटी मे फर्क नहीं समझते और अपनी बेटी को वो बेटा मानते है| यही बात वो सारे समाज को सिखाना भी चाहते है|
एक दिन हमारी कालोनी मे रहने वाला मनोज नौकरी मिलने से दुखी हो कर पार्क मे बेटा रो रहा था की अचानक मेहरोत्रा साहब की उस पर नज़र पड़ी और वो उसे समझाने पहुँच गए| काफी देर तक उन्होने मनोज को खूब समझाया| बड़ी बड़ी बाते  की और जाने क्या क्या| पर एक बात जो मनोज को बार बार अखर रही थी वो थी की क्या लड़की की तरह रोते हो मर्द हो हिम्मत से काम लो और आगे बड़ो| जब मनोज  ने उन्हे इसके लिए टोका तो वो बिना कुछ कहे वहाँ से चले गए मनोज का कहना कुछ हद तक ठीक भी था एक तरफ आप लड़का लड़की मे फर्क नहीं करते और बार बार लड़की को कमजोर होने का उदाहरण देते जा रहे हैं |
ये कहानी सिर्फ मेहरोत्रा साहब या मनोज की ही नहीं है बल्कि ये हर इंसान की कहानी है आज विकास के इस दौर मे जहां हर कोई महिला समानता के अधिकार की लड़ाई लड़ रहा है वो महिलाओ को नौकरी में, घर में, समाज में, जगह जगह एक समान अधिकार दिलाना चाहता है| इस विषय पर बड़ी बड़ी बहस होती है न्यूज़ चैनलो पर भी अक्सर इस विषय पर बहस का सिलसिला चलता है और बडे बडे विचार रखे जाते हैं पर सच क्या है यही की हम दिखावे मे कोशिश तो बहुत कर रहे हैं पर अपनी मानसिकता को नहीं बदल पा रहे हैं |
अगर हम कभी भी गौर करे तो अक्सर किसी रोते हुए आदमी को कोई व्यक्ति चाहे वो पुरुष हो या स्त्री संत करता है थो वो यही कहता है की क्या लडकियों की तरह रोते हो ये बात यही साबित करती है की आखिर हम महिला समानता के लिए कितने जागरूक हैं और गंभीर हैं|
लब्बो लुआब अगर देखे तो यही है की अगर आप वाकई महिला समानता का दम भरते है तो सिर्फ नौकरी ससुराल या समाज मे एक बराबर उतने बीतने का अधिकार दिलाना कोई बहादुरी नहीं| जरूरत है की पहले व्यक्ति मानसिकता मे बसी इस तरह की छोटी बातो को ख़तम करे कहते भी है की-
हम परिपक्व तब नहीं होते जब हम बड़ी बड़ी बाते बोलने लगते है बल्कि हम परिपक्व तब होते है जब हम छोटी छोटी बाते समझने लगते हैं |

और विकास परिपक समाज से ही संभव है|

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