भारत
को मातृदेवी के रूप में चित्रित करके भारतमाता या भारतम्बा कहा जाता है। भारतमाता
को प्रायः केसरिया या नारंगी रंग की साड़ी पहने, हाथ में भगवा ध्वज लिये हुए चित्रित किया जाता है तथा साथ में सिंह होता है।
वेदों का उद्घोष - माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है, , मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।) वाल्मीकि रामायण में -
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उपर
है।) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्नीसवीं शताब्दी के
अन्तिम दिनों में भारतमाता की छवि बनी। किरन चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक भारत
माता सन् 1873 में सबसे पहले खेला गया था। बंकिम चन्द्र
चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनन्दमठ में सन् 1882 में
वन्दे मातरम् गीत सम्मिलित था जो शीघ्र ही स्वतंत्रता आन्दोलन का मुख्य गीत बन
गया। अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारतमाता को चारभुजाधारी देवी के रूप में चित्रित किया
जो केसरिया वस्त्र धारण किये है। हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की बाली लिये हैं। सन् 1936 में बनारस में शिव प्रसाद गुप्त ने भारतमाता का
मन्दिर निर्मित कराया। इसका उद्घाटन गांधीजी ने किया। हरिद्वार में सन् 1983 में विश्व हिन्दू परिषद ने भारतमाता का एक मन्दिर
बनवाया। शायद ये भारत माता की तस्वीर आप आज के समय में देखना पसंद करेंगे। पर क्या
वाकई में हम देखने को पा रहे हैं। देश की आजादी में जब संचार के इतने माध्यम भी
नहीं थे तब इसी शब्द ने हमे एक करके विदेशी ताकतों से लड़ने की शक्ति दी थी। इस
भारत की धरती पर जिस तरह की घटनाएँ आज हो रही हैं क्या वाकई में इस शब्द का अर्थ
यही है। वेदों और उपनिषदों में विश्वास रखने वाले क्या जिस भारत को माँ कहते हैं
वो माँ ऐसे ही पुत्रों की उम्मीद करती है। क्या लाल सलाम की माला जपने वालों ने
कभी किरन चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक भारत माता नहीं देखा है। बंकिम चन्द्र
चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनन्दमठ को नहीं पढ़ा है। किस आजादी और आन्दोलन की बात हम
कर रहे और किस तरह से। अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारतमाता को चारभुजाधारी देवी के रूप
में चित्रित किया जो केसरिया वस्त्र धारण किये है। हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की
बाली लिये है और भारत का नक्शा हरे रंग से रंगा है साथ ही आसमान को नीले रंग से
दर्शाया गया है। केसरिया रंग जो उमंग का प्रतीक है, पुस्तक जो ज्ञान का प्रतीक है, माला जो एक धागे में सभी
के बराबर से पिरोए हुए होने का प्रतीक है, श्वेत वस्त्र जो शांति का
प्रतीक है, धान की बाली जो हमारे मेहनतकश होने का प्रतीक है, हरा रंग हरियाली का और नीला रंग आकाश की ऊँचाइयों को
छूने का प्रतीक है। आखिर क्या इसमें कही से भी रक्त विद्रोह, ऊँच - नीच, दलित- सवर्ण का भेद
स्पष्ट किया गया है। देश जिन हालातों से गुजर रहा है उसमें इस बात का दोहराया जाना, भारत माता को परिभाषित किया जाना जरूरी जान पड़ता है।
वकीलों, पत्रकारों, राजनेताओं और युवाओं की
भूमिका में कहीं न कहीं वर्तमान के हालात पर कमी नज़र आती है। उम्मीद करते हैं कि
जिस देश की आवाम ने जिस भारतमाता के नाम पर एक हो कर भारत को आज़ाद कराया था। जिस
भारतमाता के नाम ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक होकर सड़क से संसद तक गंभीरता दिखाई
थी। आज उस भारतमाता के नाम पर भारत को बटने नहीं देंगे। ये देश, ये भारतमाता किसी एक की नहीं बल्कि सभी की है। इसमें
विरोध को रखिए पर विद्रोह को मत रखिए। एक हो कर कहिए भारतमाता की जय न की अनेक हो
कर।
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