शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

आप का ‘आप’ पर भरोसा

क्या सपा, क्या बसपा, क्या भाजपा और क्या कांग्रेस। हर दल के अन्दर शुन्यकाल की स्थिति दिख रही है। हर कोई आप की जीत को अभी तक वास्तविकता मन पा रहा है। हो भी कैसे दशकों से जिन्होंने राजनीती की है और अचानक एक पार्टी जिसमे कोई राजनीति का पुरोधा न हो वो चुनाव में अपनी ताकत झोंके और अप्रत्याशित जीत दर्ज कर देश के दिल पर राज करे तो विश्वास हो भी नहीं सकता। ये तो राजनीतिक विश्लेषण का मुद्दा है कि क्यों ऐसा हुआ आखिर क्या जनता चाहती है क्या संसदीय चुनाव और विधायकी के चुनाव में बड़ा अंतर होता है और न जाने क्या क्या। मैं यहां राजनीतिक बात नहीं करना चाहता बस दिल्ली के मिजाज को समझना चाहता हूँ और आप से भी समझने की उम्मीद करता हूं। आज से कुछ ही साल पहले जब दिल्ली में एक महाराष्ट्र से बुजुर्ग सिपाही देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अनशन पर बैठा तो उससे जुड़ने के लिए न केवल देश के लोग ही आये बल्कि पुरे विश्व से लोगों ने अपना योगदान देने के लिए समय निकाला। उसी दौरान एक दो बार मेरा वहां जाना भी हुआ तो बहुत से लोग उसे इस देश का एतेहासिक लम्हां बता कर इसे अपने कैमरे में कैद कर रहे थे। और न जाने क्या क्या। चलिए थोडा आगे की बात करते हैं। फिर अचानक वो पूरा समूह टूट जाता है और सब अलग अलग ठीक जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन की तरह। फिर थोडा और समय बीता राजनीति में न आने की कसम खाने वाले अरविन्द केजरीवाल अचानक से एक पार्टी बनाने की बात करते हैं और चुनाव में उतर जाते हैं। दिल्ली में बहुमत से कुछ कम सीटें और लोक सभा चुनाव में 4 सीटें जीत भी जाते हैं। पर अपनी साख खो चुके हैं ऐसा प्रतीत होता है। फिर चुनाव हुए और नतीजे आप के सामने हैं। इस बार जो हुआ वो किसी की भी समझ से परे है। पर चलिए जो हुआ अच्छा ही हुआ होगा। बस इतना देखना होगा की ये नतीजे अगर आप ने ‘आप’ के भरोसे पर ‘आप’ को दिया है तो ये जिम्मेदारी भी आप की ही होगी क्योंकि देश आप से ही उम्मीदें रखता है, आप देश की राजधानी की जनता हैं। और देश का रुख भी आप के ही रुख से बदलता है।

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