ये तकरीबन आज से करीब 27 साल पहले की बात है प्रतापगढ़ के एक सरकारी काॅलनी में हम रहते थे। वहां की आबो हवा कैसी थी पता नहीं पर वहां एक बात थी कि अगर किसी के भी घर से किसी की रोने की हलकी सी आवाज आ जाये तो वो आवाज जिस जिस घर तक पहुँचती थी उस उस घर से कोई न कोई देखने जरुर आता था कि आखिर क्या हुआ। तकरीबन एक हजार लोगों की काॅलनी में ये कैसा सम्बन्ध था पता नहीं पर अच्छा था। चंद रोज पहले एक लड़की की हत्या लखनऊ शहर में हुई तो सारा शहर स्तब्ध हो गया पर शर्मिंदा कितना हुआ ये कोई नहीं जानता। कल कुछ लड़कियों ने इसके खिलाफ विरोध भी किया। याद रखें लड़कियों ने सिर्फ। कोई लड़की मायूस थी तो कोई गुस्से में थी किसी की आँखों में नमीं थी तो किसी की आँखों में आग थी। पर सब का सवाल ये था कि प्रशासन क्या कर रहा? क्यों सो रहा है प्रशासन? पर क्या वाकई में ये विरोध ये गुस्सा तहजीब के शहर का था? क्या वाकई ये गुस्सा प्रयोजित नहीं था? गौरी मैं प्रायोजित नहीं हूँ और न ही मेरी शर्मिंदगी। पर कल के आक्रोश को मैं इस शहर का आक्रोश नहीं मानता। ये प्रायोजित था। जिस स्कूल से वो पढ़ी थी वो स्कूल था। कुछ राजनैतिक दलों के नेता थे। बस ये शहर नहीं था। क्योंकि ये शहर शायद उसे इस शहर की बेटी नहीं मानता है। ये शहर इस घटना को आम घटना मानता है। ये शहर अब इन घटनाओं से नहीं जागने वाला। और अगर जागा भी तो बस चंद दिनों के लिए क्यों की हम गुस्से को भूलना जानते हैं। ये हमारी बेहतरीन कला है। अच्छा है चलो कुछ लोग इस घटना पे तो जागे हैं। वरना ना जाने कितने ऐसे भी मामले हुए जिसमें हमने जागने की जेहमत तक न उठाई। आप जागे हैं तो जागे रहियेगा। पर सिर्फ गौरी को इन्साफ दिलाने के लिए नहीं बल्कि किसी और गौरी को बचाने के लिए। एक बात गौरी मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि शुक्रिया गौरी। तुमने बहादुरी का काम किया किसी और गौरी के लिए अपनी जान दे दी।
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