लोक सभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत के बाद बीजेपी कार्यकर्ता एकदम उत्साह से परिपूर्ण दिखे। होना भी चाहिए था। आखिर पहली बार बीजेपी पूर्ण बहुमत से जीती थी। और नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन रहे थे। आम जनता भी मोदी से पूरी उम्मीद लगाये बैठी थी। यह होना लाजमी था आखिर पहली बार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया था। विदेश नीती हो या देश में सरकारी काम में तेजी। नरेन्द्र मोदी ने उसी उम्मीद पर खरा उतरने के लिए तमाम काम भी किये। इसी बीच बीजेपी ने सदस्यता अभियान का टेक्नोलजी से लैस एक प्रोफार्मा तैयार किया। जिसको पुरे देश में बहुत जोर शोर से शुरू किया गया। पुरे देश का बीजेपी कार्यकर्ता इस काम में पूरी तन्मयता के साथ लग गया। और विश्व रिकार्ड कायम करते हुए एक करोड़ से भी अधिक सदस्य बनाये। बीजेपी इस कामयाबी के लिए गिनीज बुक ऑफ़ वर्ड रिकार्ड से भी नवाजी गई। पर इस कार्य में कहीं न कहीं बीजेपी कार्यकर्ता उस मूल कार्य से हट गए जान पड़ते हैं जिसको लेकर वो लोक सभा चुनाव में उतरे थे और जनता ने भी उनसे जिसके लिए उम्मीद लगाई थी। अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुद सदस्यता अभियान का जमीनी हाल जानने की कोशिश करेंगे। वह 20 मार्च से अपना यह काम शुरू करेंगे। अमित शाह की सदस्यता अभियान को लेकर गंभीरता पार्टी हित के कुछ मायनों में बहुत अच्छी हो सकती है। पर इसका दूरगामी परिणाम अच्छा हो यह सोचनीय है। आखिर जब पार्टी के सभी कार्यकर्ता सिर्फ सदस्यता अभियान में ही लगे रहेंगे तो उनसे जनता के बीच में काम करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव बेहद नजदीक हैं। जहां सपा अपने आप को दुबारा सत्ता में लाने के लिए तेजी से काम करने की कोशिश कर रही है। बसपा अभी से चुनाव की तैयारियों में लगी हुई है। वहीं भाजपा का सिर्फ सदस्यता अभियान में ही लगे रहना उसके लिए संकट न खड़ा कर दे। इधर प्रदेश सरकार द्वारा कई ऐसे कार्य किये गए जिसके लिए तमाम विरोधी दल सड़कों पर उतरे, ट्रेन रोकी, विधान सभा में विरोध किया। फिर वो चाहे कानून व्यवस्था को लेकर विरोध रहा हो या फिर भूमि अधिग्रहण संसोधन रहा हो। मगर भाजपा सिर्फ सदस्यता अभियान में ही मशगूल दिख रही है। भाजपा को अगर यह लगता है कि जिस तरह से लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उसे जीत मिली है वैसी ही जीत उसे 2017 के विधान सभा चुनाव में मिलेगी। भाजपा को अभी से जमीनी हकीकत पर उतर कर जनता के बीच में जुटना होगा। वरना 2017 की कुर्सी प्रदेश में आसान नहीं।
रविवार, 8 अप्रैल 2018
देश के मूल को न भूलें
जिस देश ने भारत पर 200 साल तक राज किया हो। जिसने वो हर कदम उठाये जिसे आज भी सुन कर हमारा दिल सिहर उठता है। जिस वक्त हमारा देश गुलामीं की जद में था उस वक्त के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने राष्ट्र पिता महात्मा गांधी को अध नंगा फकीर कह कर मजाक उड़ाया हो। उसी देश में उस अध नन्गे इंसान को सलाम किया जाए। उसकी मूर्ति लगे। और यही नहीं महात्मा गांधी की मूर्ति उसी इंसान के साथ जिसने ऐसा मजाक किया हो। ये सपना भी लगता है और गर्व का समय भी। कुछ ऐसा ही हुआ ब्रिटेन के ऐतिहासिक पार्लियामेंट स्क्वेयर में जहां शनिवार महात्मा गांधी की मूर्ति का अनावरण किया गया। समारोह में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून, वित्त मंत्री अरुण जेटली, महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी और महानायक अमिताभ बच्चन भी शामिल हुए। कांस्य की इस मूर्ति को मशहूर शिल्पकार फिलिप जैक्सन ने तैयार किया है। महात्मा गांधी ऐसे विरले महापुरुष हैं, जिनकी भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका के बेलेवू में स्थित एस्फोर्ड पार्क प्लाजा, अस्ट्रेलिया के केनबरा में स्थित ग्लेब पार्क, चीन के बीजिंग स्थित शाओयेंग पार्क, और रूस के मास्को स्थित स्टेट फारेन लिटरेचर लाइब्रेरी समेत 70 से ज्यादा देशों में मूर्तियां लगी हुई हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड ने कहा कि यह प्रतिमा विश्व राजनीति के सर्वकालिक शिखर पुरुषों में से एक को दी गई शानदार श्रद्घांजलि है। उनकी ज्यादातर शिक्षाएं आज भी बेहद प्रासंगिक और भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी हैं। महात्मा गांधी की इस मूर्ति के कई मायने हैं। ये सिर्फ हमें विश्व में अपने नाम की और ज्ञान की महत्ता को ही नहीं दर्शाता बल्कि इससे हमें भी बहुत शिक्षा मिलती है। आखिर ऐसी क्या वजह है कि आज पूरा विश्व हमारे देश के विचार से प्रभावित हो रहा है। क्या वाकई में हम विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। अगर ऐसा है तो इसके लिए हम क्या प्रयास कर रहे। सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने नेताओं के भाषण ही पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए हमे अपने उस मूल को भी पकड़ना होगा जिसके लिए आज भी पूरा विश्व भारत देश का आभार मानता आ रहा है। ब्रिटेन में लगी ये मूर्ति अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से कितनी सही है, यह भारत और ब्रिटेन के संबंधों पर कितना प्रभाव डालेगी। ये तय करना अभी जल्दबाजी होगा। पर इससे हम यह सीख जरूर लें कि कोई भी देश अगर विश्व स्तर पर अपने आप को स्थापित करता है तो वह उसका मूल है, उसका इतिहास है।
तीन साल- दर्द या मरहम
सरकारें आती हैं चली जाती हैं पर हम यहीं रहते हैं। देश के विकास की धारा में या तो हिस्सा बनकर या उसकी उम्मीद के लिए। पर इसका मुख्य कर्ता कौन है? सरकार। उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार को आज तीन साल पुरे हुए। सरकार अपनी उपलब्धियां गिनाने में जुटी है और विपक्ष नाकामियां। पर इसका अर्थ क्या हुआ? क्या ये दिन भी वैलेंटाइन डे की तरह है कि जिसे अच्छा लगा वो तारीफ करे? जिसे नहीं वो बुराई। खैर ये राजनीति है हमे इसके लाभ और हानि से मतलब नहीं। हमे तो ये जानना है कि क्या 2012 में जो फैसला हमने लिया था वह सही था ? क्या वाकई में हमें जो सपने सपा सरकार ने दिखाए थे, जो संकल्प हमारे सामने लिए थे वो पूरे कर दिए हैं। कुछ पहलुओं पर देखें तो शायद कोशिश की गई है। पर कई ऐसे भी पहलू हैं जहां हमें वाकई धोखा सा लगता है। सरकार की तमाम ऐसी योजनाएं जो शायद सपा का पूर्ण बहुमत से सरकार में आने के मुख्य बिंदु थे उन्हें ही सरकार ने बंद कर दिया। उदाहरण के लिए बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप, टेबलेट, कन्या विद्याधन, आदि। मेट्रो, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाएं जनता को लुभा भी रही हैं। क्या वाकई में सिर्फ इसी के लिए हम सरकार चुनते हैं? शायद नहीं। हमारी ज़रुरत सुरक्षा, बिजली, पानी, रोजगार, जैसी छोटी छोटी चीज़ें हैं जिन्हें देने में अभी भी प्रदेश सरकार पूरी तरह से जनता के भरोसे पर खरी नहीं उतर सकी है। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को अपने बेटे पर जितना भरोसा है उतना ही भरोसा प्रदेश की जनता ने भी किया था। पर परिवारवाद से उठ कर शायद इस बार भी सपा नहीं सोंच सकी है। 2017 का चुनाव अब बहुत दूर नहीं है और देश के सबसे बड़े प्रदेश की फिलहाल जो स्थिति बनी हुई है ऐसे में सपा को आत्म मंथन करने की ज़रुरत है। कहीं ऐसा न हो कि अगले विधानसभा चुनाव में सपा को अप्रत्याशित नतीजे देखने को मिलें। आप के बड़े बड़े अच्छे कार्यों पर मूल रूप की खामियां इस कदर भारी पड़ रही हैं जो आप की मुश्किलें बढ़ा देने के लिए काफी हैं। जैसे कि अपराध, परिवारवाद, कोई भी ठोस कदम न उठाना। यादव वाद भी इसका मुख्य कारण है। मुलायम सिंह यादव आप देश के बड़े ही माहिर राजनेताओं में से हैं। ऐसे में आप की सरकार का लगातार गिर रहा ग्राफ आप कि राजनीति पर भी सवाल खड़े कर रही है। जनता को जो भी दर्द मिला हो या उसे मरहम मिला हो। इसका फैसला तो 2017 में होगा। पर आप ज़रुर इसे ध्यान रखें कि अगर अभी नहीं चेते तो जनता फिर कभी शायद ध्यान न दे।
आप का मैं में परिवर्तन
आम आदमी पार्टी यानी कि आप। इसकी परिभाषा जो अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी बनाते वक्त दी थी वो कुछ इस तरह थी कि यह आम जनता की पार्टी है। भारत देश के हर इंसान की पार्टी है। आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों के इस विचार पर समीर अनजान का लिखा और हिमेश रेशमिया का गाया वो गाना भी बिलकुल फिर बैठता है “तुम और मैं गर हम हो जाते”। पर हाल ही में पार्टी की अन्तह् कलह को देखते हुए पार्टी की सोंच कुछ इस तरह से जान पड़ती है कि चलो बस हो चूका मिलना, न तुम खाली न हम खाली। योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, अंजलि दमानिया, मयंक गांधी के बाद अब पार्टी की बिहार यूनिट के प्रमुख बसंत कुमार चैधरी ने अपने राष्ट्रीय नेतृत्व पर व्यक्तिवाद और स्वार्थ की संस्कृति को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है। चैधरी ने कहा, ‘आज पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र की जगह स्वार्थी लोगों ने ले ली है। पार्टी अपने अंत की तरफ तेजी से बढ़ रही है। अब बातचीत का केंद्र ताकतवर नेतृत्व बन गया है। भ्रष्टाचार से दूर रहने और आंतरिक लोकतंत्र जैसी बातें अब अर्थहीन हो गई हैं। पार्टी की तरफ से मोर्चा संभाले वाक्पटुता के धनी कुमार विश्वास का कहना है कि ये लोग पार्टी को बुरी स्थिति में दिखाने के लिए साजिश करते हैं। कुमार विश्वास ने आप के पूर्व विधायक राजेश गर्ग पर भी आरोप लगाए हैं। विश्वास के अनुसार राजेश गर्ग ने ही इस ऑडियो स्टिंग को मीडिया में रिलीज किया है। उसने ही यह टेप एक पत्रकार को उपलब्ध कराया था। उन्होंने इस बात पर विश्वास जताते हुए कहा कि वे लंबे समय से ऐसे लोगों के बीच काम कर रहे हैं उन्हें ऐसे लोगों से निपटना और ऐसी स्थितियों से उबरना आता है। ये तो बयान हैं। खैर अगर हम पार्टी के बनते वक्त की बात करें तो योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से विचार विमर्श के बिना कभी भी अरविन्द केजरीवाल ने कोई भी कदम नहीं उठाया था। जिस सोंच और संकल्प के बीच इस पार्टी ने जनता का विश्वास जीता है क्या वह इस अंतर विरोध के बाद बचा रहेगा। क्या पार्टी वाकई में कुछ खास लोगों के ही मध्य सिमट के रह गई है। कुमार विश्वास का यह कहना कि अरविन्द केजरीवाल जब बीमार होते हैं तभी विरोध उत्पन्न होता है। ये कहीं इस बात का इशारा तो नहीं कि अरविन्द केजरीवाल ही एक मात्र माध्यम हैं जो इन सब को एक साथ बांधे हुए हैं। वरना इस दल में कोई भी लोकतंत्र या एकमत विचार का समर्थक नहीं है।
विरोध, बंद नहीं साथ खोलने का काम कब
पुलिस गलत, अधिवक्ता गलत, राजनीति गलत, गुस्सा इतना कि देश पूरा पटरी से उतर सा गया है। पुलिस और वकील की एक लड़ाई। जिसमें शायद उन दोनों के पडोसी का भी कोई मतलब न रहा होगा। पर आज पूरा देश इसका दंश झेल रहा। वकील साहब न जाने कितने ऐसे बेगुनाह होंगे जिसे जेल से सिर्फ इस लिए नहीं रिहा किया जा रहा है क्योंकि आप काम नहीं कर रहे। आप का गुस्सा है कि मेरे एक अधिवक्ता भाई को गोली मारी गई है और वो मर गया है। बेशक उस पुलिस वाले को सजा मिलनी चाहिए। आखिर वो रिवाल्वर लेकर कचहरी में आया कैसे। और फिर झगडा हुआ भी आप से तो गोली मारी वो भी गलत। आप तो कानून के संरक्षक हैं। आप के हांथ में सब कुछ है लटकवा दीजिये उसे फांसी पर। पर इस विरोध को रोकिये। क्योंकि इस विरोध से न जाने कितने ऐसे लोग जीते जी मर रहे हैं जिनकी आखरी आस ही आप कि कचहरी है। ये सवाल तो था वकीलों से अब सवाल प्रशासन से है। आप किस प्रकार का रवैया अपनाना चाहते हैं वकीलों के विरुद्ध। रात में गैर कानूनी तरीके से तहसील को हस्तानांतरित करने का काम करते हैं। विरोध होता है तो लाठियां चलाते हैं। फिर विरोध होता है फिर लाठियां चलती हैं। सरकार जागती है और प्रशासन के ज़िम्मेदारों को तलब करती है। बस सरकार का भी काम पूरा हो जाता है। आखिर कब तक इस तरह आप सभी आम जनता को ढाल बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहेंगे। आखिर ये विरोध, ये आक्रोश किसके लिए है? बार काउंसिल ऑफ इंडिया का भी कार्य बहिष्कार करना कितना सही और कितना गलत है ये कोई और नहीं बल्कि अधिवक्ता भाई खुद ही तय करें। आखिर आप भी देश के एक स्तम्भ का अंग हैं। सवाल आप से भी बनते हैं। विरोध कब तक होगा ? एक बार जरा साथ में विरोध करने नहीं बल्कि विरोध को रोकने के लिए काम करें। ये देश आप का है। ये विरोध, ये बंद आपके अहम को तो शांत कर सकता है। पर क्या देश के अहम को बरकरार रख सकता है? क्या हमारे देश में विरोध को ही विकास का रास्ता समझा जाता है? एक बार विरोध नहीं, बंद नहीं साथ में देश के विकास और सुरक्षा के मार्गों को खोलने का काम करें।
मोदी की सरकार का तेवर नज़र नहीं आता
जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता मसर्रत आलम की रिहाई पर पहले गृह मंत्री राजनाथ सिंह और फिर बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बयान दिया। लेकिन विपक्ष उनके बयान से संतुष्ट नहीं हुआ। दोनों ही नेताओं ने कहा कि उनके स्वर भी सदन के सदस्यों के आक्रोश के साथ हैं। प्रधानमंत्री ने सदन को बताया कि जम्मू कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वो बिना केंद्र सरकार के मशविरे से हो रहा है। मोदी ने कहा, आक्रोश दल का नहीं, यह आक्रोश उस तरफ की बेंचों या इस तरफ की बेंचों का भी नहीं बल्कि पूरे देश का है। हम एक स्वर से अलगाववाद को समर्थन करने वालों के खिलाफ आक्रोश व्यक्त करते हैं। इससे पहले गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोक सभा को बताया कि उन्होंने जम्मू कश्मीर के गृह विभाग से मसर्रत आलम बट की रिहाई के बारे में स्पष्टीकरण माँगा है। बट के खिलाफ 1995 से कुल 27 मामले दर्ज हैं जिनमें देश द्रोह के भी मामले हैं। कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि अगर भाजपा की सहमति के बिना जम्मू-कश्मीर सरकार ऐसे कदम उठा रही है तो भाजपा पीडीपी सरकार से अलग क्यों नहीं हो जाती ? मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जम्मू-कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न होने का श्रेय पाकिस्तान और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस समेत अलगाववादियों को भी दिया, पीडीपी के विधायकों ने संसद हमला कांड में फांसी पर चढ़ाए गए आतंकवादी मोहम्मद अफजल के अवशेष मांगे और उसके बाद आलम की रिहाई हुई। इन पुरे हालातों को देख कर केंद्र सरकार का घिरना तय ही था। नरेन्द्र मोदी ने जो भी सदन में कहा वो सुनने में तो बहुत ही अच्छा लग सकता है पर शायद समस्या का यह निदान नहीं है। जिस जम्मू कश्मीर को हम देश की जन्नत कहते हैं वहां इस तरह की घटनाएं देश के लिए कभी भी सही नहीं हो सकती। रही बात भाजपा कि तो यह कहना किसी भी तरीके से ठीक नहीं जान पड़ता कि यह पूरा निर्णय सिर्फ और सिर्फ जम्मू कश्मीर की बीजेपी इकाई का है। नरेन्द्र मोदी जी आप को इस बात का भी ध्यान रखना होगा की जम्मू कश्मीर सरकार में बने रहने की आप की महत्वाकांक्षा कहीं पुरे देश में आप को नुक्सान न पहुंचा दे। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि जम्मू-कश्मीर सरकार बचाए रखने के लिए भाजपा कितनी नरमी बरतेगी? भाजपा के बयान और उनके स्पष्टीकरण में कहीं भी नरेन्द्र मोदी की सरकार का तेवर नज़र नहीं आता। जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र का सपना आप की सत्ता की चाहत कहीं सपना ही न बना रहने दे।
विकल्प हमेशा ही जनता के हाँथ में है
भारतीय राजनीति में उसे बहुत पसंद किया जाता है जो बेहतर वक्ता होता है। जो हाजिर जवाबी होता है। जिसे हर सवाल का बेहतर तरीके से जवाब देना आता है। फिर वो चाहे सदन में पूंछा गया हो या मीडिया द्वारा। उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री को राजनीति में कच्चा खिलाडी माना जाता रहा है। लेकिन कुछ महीनों में देखें तो अखिलेश यादव जिस तरह से सदन में जवाब देते दिखते हैं। मीडिया को जवाब देते दिखते हैं वो कहीं न कहीं राजनीति के अच्छे लक्षण ही जान पड़ते हैं। मंगलवार को सदन में अखिलेश यादव ने राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पढ़ा जो कि सर्वसम्महति से पास हो गया। इस बीच सीएम ने विपक्षियों की जमकर चुटकी भी ली। सीएम सदन में आए और अपना धन्यवाद प्रस्ताव पढ़ा। उन्होंने अपने हाजिर जवाबी से यह भी साबित कर दिया कि वे पक्के राजनीतिक व्यक्ति बन गए हैं। मंगलवार को सदन में सीएम अखिलेश ने सरकार की योजनाओं का जमकर बखान किया और बीच-बीच में विपक्षियों पर हमले भी किए। बातों-बातों में ही सीएम ने नेता प्रतिपक्ष को सपा में शामिल होने का न्योता भी दे दिया। धन्यवाद प्रस्ताव के शुरुआत में ही सीम अखिलेश ने चुटकी लेते हुए कहा कि सुना है नेता प्रतिपक्ष कह रहे हैं कि सपा सरकार की योजनाएं झुनझुना है। वहीं, एक दल कहता है कि ये योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही लागू हंै। सीएम ने यह भी कहा कि नेता प्रतिपक्ष सपा सरकार के झुनझुने की तारीफ कर चुके हैं। सीएम ने स्वामी प्रसाद मौर्या पर चुटकी लेते हुए कहा कि जब एक्सप्रेस-वे बन जाएगा तब आपको साथ घुमाने जरूर ले जाएंगे। सीएम अखिलेश यादव ने मायावती पर निशाना साधते हुए कहा कि जो हाथी पुरानी सरकार ने बनवाए थे, वह खड़े ही रह गए हैं। सदन में अखिलेश यादव ने कहा कि एक दल कह रहा था कि 24 घंटे बिजली देंगे, लेकिन यह नहीं बताया कि 24 घंटे बिजली देंगे कैसे? सीएम ने कहा कि 24 घंटे बिजली आपूर्ति के लिए सपा सरकार लगातार काम कर रही है। अखिलेश यादव के इस तरह का बयान दिया जाना उनका राजनीति के लिए परिपक्व होना दर्शाता है। पर इस बात का ध्यान रखना होगा की आप अपनी वाक्पटुता से भले ही राजनीति के लिए तैयार हो गए हैं पर अब जनता बातों से मानने वाली नहीं है। काम करके दिखाइए जनता आपका साथ देगी। वरना विकल्प हमेशा ही जनता के हाँथ में रहता है।
विरोध कितना सही
अक्सर आप पर सवाल उठे हैं। आप की एकता से सभी डरते भी हैं। इसकी मिसाल भी देते हैं। अच्छी बात है की आप में इतनी एकता है। कहा भी जाता है कि एकता में ही शक्ति है। पर क्या यह शक्ति आप की सही दिशा में लग रही है ? क्या वाकई में आप इस शक्ति के माध्यम से देश में एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में आप के द्वारा तमाम प्रकार के विरोध प्रदर्शन किये गए। जिसका खामियाजा उस इंसान ने भरा हो या नहीं जिसका आप विरोध कर रहे थे। पर आम जनता को उसने काफी हद तक बेहाल कर दिया। किसी की जान गई और किसी ने पहली सांस भी उसी जाम में ली। इस बार फिर से आप विरोध कर रहे। तहसील का ट्रान्सफर होना सही है या नहीं ये तो वही बता सकता है जिसका उससे अक्सर वास्ता पड़ता रहता है। ये भी सही है कि उसकी दूरी आप को भी खल रही है। पर जिस तरह का आप का विरोध है। जरा सोंचिये की इसकी वजह से न्यायालय में आने वाले फरियादियों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा। आप की मांगे जायज़ हो सकती हैं पर उसका विरोध सीधे आम जनता को कष्ट दे कर हो कहां तक सही है ये। आप खुद तय करें। पुलिस द्वारा आप पर हुए लाठीचार्ज को कोई भी सही नहीं मानता पर क्यों नहीं ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे आप के बुद्धजीवी होने के पद पर सवाल न खड़ा किया जाए। जिस तरह से आप की छवि पर उंगलियां उठने लगी हैं। ये आज तो नहीं पर आने वाली आप की ही नई पौध के लिए कितनी घातक साबित होगी इसका अनुमान आप खुद हि लगा सकते हैं। ऐसा न हो कि लोग अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए आप का साथ लेने से भी कतराने लगें। इसके लिए बेहतर होगा कि समय रहते ही आप गंभीरता से इस पर विचार करें और अपने विरोध के तरीके को थोडा सा बदलें ताकि आप की मांगें भी पूरी हो सकें और आम जनता को भी कोई दिक्कत न हो।
एक दिन ही क्यों
महिला दिवस की सभी को खूब बधाई मिली फेसबुक रहा हो या वाट्स एप सभी जगह महिला दिवस की बधाई की धूम मची हुई थी द्य हर इंसान देश की अधि आबादी का सम्मान करना चाह रहा था द्य दिल खुश था महिलाओं में भी ख़ुशी दिख रही थी द्य पर क्या वाकई में ऐसा हुआघ् दिल से सभी ने इस दिन को मनाया था क्या घ् क्या वाकई में आज की नारी इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार करती है की एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन लोग उनका सम्मान करेंगे घ् क्या इस देश को इस दिवस की वाकई में ज़रुरत हैघ् पूरी दुनिया में रविवार को एक ओर जहां अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा था ए महिला सशक्तिकरण और उन्हें सम्मान देने की बात हो रही थी ए तो दूसरी ओर यूपी पुलिस का बर्बर चेहरा भी देखने को मिला द्य उन्नाव में शनिवार को एक सड़क हादसे के बाद विरोध.प्रदर्शन कर रही महिला को मौके पर पहुंचे पुलिस वालों ने लात.घूंसे से जमकर पीटा द्य रविवार को उन्नाव पुलिस अधीक्षक और गंगा घाट के थानाध्यक्ष को इस मामले में सस्पेंड कर दिया गया। वहींए दो पुलिसवालों को लाइन हाजिर किया गया है। इसके अलावा सड़क हादसे में मारे गए युवक के घरवालों को दो लाख रुपए मुआवजे का एलान किया गया है। दूसरी घटना है इलाहाबाद में हुई जहाँ एक युवती से रेप का प्रयास करने की घटना ने पूरे इंसानियत को शर्मसार कर दिया। बताया जा रहा है कि युवती जब शौच के लिए सुबह खेत में गईए इसी दौरान गांव के ही एक युवक ने इस वारदात को अंजाम देने की कोशिश की। फिलहाल पुलिस ने केस दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। तीसरी खबर पर नज़र डालें तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा लखनऊ में बनाये गए साइकिल ट्रैक पर महिलाओं ने साइकिल चलाई द्य और उन्हें आजादी का भरोसा दिलाया गया द्य साड़ी घटनाओं को देखने के बाद तो यही लगा की शायद उत्तर प्रदेश में इस दिवस का महत्व अन्य दिवसों से कुछ भी अलग नहीं द्य हर साल की तरह इस साल भी ये दिवस आया बड़ी बड़ी बातें हुई और कुछ नहीं द्य उन्नाव और इलाहाबाद की घटनाओं ने सरकार और प्रशासन पर तो सवाल खड़े ही किये हैं पर साथ ही हम पर भी ऊँगली उठी है द्य क्या वाकई में हम तैयार हैं देश की अधि आबादी को वो सम्मान और आजादी देने के लिए जिसके लिए वो न जाने कब से संघर्ष कर रही हैं घ् या देश की नारी अभी भी इस इंतज़ार में है कि हम उन्हें ये सब देंगे घ् चलिए दिवस आया और गया भी ए पर सवाल फिर वहीँ खड़ा है कि कब वह दिन आएगा जब हम आप को किसी विशेष दिन ये संकल्प लेने के लिए नहीं खड़ा होना होगाद्य
विरोध कितना सही
एक बार फिर हंगामा हुआ है। वजह है निर्भया कांड पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘इंडिया’ज डॉटर’। हंगामा क्यों है समझना भी ज़रुरी है। इसमें पहला सवाल है जो बहुत हद तक जायज लगता है वह यह कि क्या इसकी शूटिंग के दौरान जेल नियमों की अवहेलना हुई। डॉक्यूमेंट्री की ब्रिटिश निर्माता लेसली उडविन का दावा है कि उन्होंने 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में 23 वर्षीय युवती के साथ हुए दुराचार के सजायाफ्ता मुजरिम मुकेश सिंह से इंटरव्यू लेने के लिए तमाम प्रक्रियाएं पूरी की थीं। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो जांच होने के बाद ही पता चल सकेगी। इसके इतर एक सवाल जो और भी गंभीरता से उठाया जा रहा है कि क्या अपराधी को अपना पक्ष किसी फिल्म में या सार्वजनिक मंच पर रखने का मौका दिया जाना चाहिए। मुजरिम सामाजिक रूप से अस्वीकार्य बातें कहता है, तो क्या उसे जनसंचार के माध्यमों पर प्रसारित किया जाना चाहिए? यह वो प्रश्न हैं जो फिलहाल पूरे देश में बहस का मुद्दा बने हुए हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इसे गलत मानें और इस मामलें में तो यह विचार भी काम कर रहा है कि अपराधियों ने अकथनीय क्रूरता दिखाई, उन्हें मंच देना अवांछित और अनौचित्यपूर्ण है, मगर एक विचार यह भी है कि दुष्कर्म सामान्य अपराध नहीं है, बल्कि इसके पीछे ऐसी सांेच काम करती है, जिसकी जड़ें समाज में हैं। ऐसे में दुष्कर्म की मानसिकता को समझना ऐसे अपराधों को रोकने के उपाय करने के लिहाज से उपयोगी हो सकता है। मुकेश सिंह ने जो कहा बेशक उससे महिलाओं को लेकर उसकी पतित सोंच जाहिर होती है, और जिस तरह से इस पूरी डॉक्यूमेंट्री में वकीलों के बयान भी दिखाए गए। और उनका यह कहना कि हमारे समाज में लड़कियों का रात में किसी भी व्यक्ति के साथ बाहर जाना किसी भी तरह से सही नहीं है। यह बयान और भी कई सवालों को जन्म देता है। इस डॉक्यूमेंट्री में जो भी दिखाया गया है उसका विरोध कितना सही है यह तो आप जनता तय करे पर यह भी सच है कि इस डॉक्यूमेंट्री को नकारात्मक
सोंच के साथ नहीं देखा जाना चाहिए। यह मुमकिन है कि यह डॉक्यूमेंट्री अपने समाज के एक अप्रिय यथार्थ से हमारा साक्षात्कार कराती है। भारत में इसे दिखाने पर रोक लगाई जा चुकी है। और अब मामला न्यायपालिका के दायरे में है। निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया था। आज भी इसकी चर्चा महिलाओं की सुरक्षा एवं स्वतंत्रता से जुड़े मुद्दों को उभार देती है। इसका विरोध दुखद है। अब उम्मीद न्यायालय से है कि उसका फैसला देश में एक मिसाल कायम करेगा।
एक्सप्रेस सी जिंदगी में रंगों का इंटरवल
जम्मू कश्मीर में बयान को लेकर विवाद है। भाई ये राजनीति है इसमें बुरा मानने जैसा क्या है ? अरविन्द केजरीवाल ने संयोजक पद से इस्तीफा दे दिया। इसमें बुरा मानने जैसा क्या है। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण से आप की अनबन है। इसमें बुरा मानने जैसा क्या है। विराट कोहली नाराज़ हैं उन्होंने पत्रकार भाई को अपशब्द कह दिए। इसमें भी बुरा मानने जैसा क्या है। ये देश तमान विसमताआंे से भरा हुआ है। यहां कई रंग हैं। कई भाषाएं हैं। तमाम विचारधाराएं यहां एक साथ आपस में हमेशा युद्ध लड़ती रहती हैं। पर इसमें बुरा मानने जैसा क्या है ? और वो भी ऐसे समय में जब त्यौहार ही बुरा न मानने का हो। होली का त्यौहार है जिसमें हमेशा ही हम बुरा न मानो होली है कहते हैं और वो सब कार्य करते हैं जो आम दिनों में किसी को भी बुरा महसूस करा सकते हैं। खैर इस त्यौहार में आइये हम सब मिल कर इन तमान बातों पर खुशी के रंग डालें और एक दुसरे से इस कदर मिलें कि देश की एकता और अखंडता को पूरी दुनिया में फिर से स्थापित करें। वैसे भी भारत हमेशा से ही तमाम विसमताओं को लेकर जिया है और जीता भी है। फिर वो धार्मिक विसमता हो, आर्थिक विसमता हो, वैचारिक विसमता हो, बोली की विसमता हो या क्षेत्र की विसमता हो। आइये फिर से एक हों और अबीर गुलाल के तमाम रंगों में रंग कर एक इंटरवल लें ताकि हमारी आपकी एक्सप्रेस की तरह भागती ज़िन्दगी में कुछ पल साथ के हों। पर ये ज़रुर ध्यान रहे कि किसी को कोई नुक्सान न हो, रंग हों, गुजिया हों, मीठा नमकीन हों, पर हेल्थ फ्रेंडली हों। देश हमारा है, लोग हमारे हैं, त्यौहार हमारा है रंग में भंग न पड़े तो अच्छा है। उन लोगों को भी नम आँखों से होली मुबारक जिन्होंने किसी भी कारण से अपने किसी को खो दिया हो। शहरवासियों को होली की ढेरों शुभकामनाएं।
आप की लड़ाई
अन्ना आन्दोलन हुआ, कई बड़े लोग एक साथ आये। एक समूह तैयार हुआ। फिर फूट पड़ी और एक समूह दो भागों में बट गया। एक भाग अपने उसी उद्देश्य के साथ चल रहा था। दूसरा भाग जो कभी भी राजनीति में न आने की कसम खाए बैठे था वो राजनीति में आ गया। आम आदमी पार्टी बनाई और देश को गरीबी से मुक्ति तो नहीं पर कांग्रेस और भाजपा से मुक्ति दिलाने के लिए जनता के बीच में आ गए। खूब महनत हुई और शुरुआत दिल्ली चुनाव से की। चुनाव लड़े और अप्रत्याशित जीत भी दर्ज की। सरकार बनाई और अतिवादिता के चलते 49 दिन में ही सरकार गिरा भी दी। उतर पड़े लोक सभा चुनाव में और 4 सीट भी जीती। इसी बीच दिल्ली में सरकार न चलने के कारण पुरे देश में इसका विरोध भी झेला। दुबारा फिर दिल्ली में चुनाव हुए और इस बार और भी बेहतर प्रदर्शन कर सरकार बनायी। पर इस बार भी सरकार बनते ही फिर से पार्टी में विरोध उत्पन्न हो गया है। इस बार का विरोध कार्यकर्ता द्वारा नहीं बल्कि पार्टी को स्थापित करने वाले दो अहम लोगों का है। ये विरोध किसी और बात को लेकर भी नहीं, वही पुरानी बात कि पार्टी का मुखिया कौन ? पार्टी किसकी ? ये कोई पहली पार्टी नहीं है जिसमें इस बात को लेकर विरोध हुआ हो। इसी तरह का विरोध कांग्रेस भी झेल रही है और इसका हश्र भी वो देख चुकी है। हाल ही में बिहार में नितीश कुमार की पार्टी में कुछ ऐसा ही विरोध देखने को मिला था। जिसके चलते नितीश को भी काफी नुक्सान उठाना पड़ा। उत्तर प्रदेश में सपा पर भी इसी तरह के आरोप लगते रहे हैं और इसका नुक्सान भी उसे कई बार झेलना पड़ा है। ऐसे में आप पार्टी में आया ये विरोध एक बहुत बड़े निराशा का संकेत देता है। अगर वाकई यह पार्टी आम जनता के लिए ही बनी है तो इसमें अलाकाम, परिवार वाद जैसे आरोपों का लगना बेहद ही दुखद है। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे नेता अगर पार्टी से हटाये जाते हैं या वो खुद पार्टी से त्यागपत्र देते हैं तो यह पार्टी के लिए जनता के बीच बहुत ही गलत सन्देश देगा। अरविन्द केजरीवाल को इस बात का ख्याल ज़रुर रखना चाहिए की फर्श से अर्श तक जितनी तेजी से आप पहुंची है अगर उसे गंभीरता से नहीं संभाला तो अर्श से फर्श तक आने में भी समय नहीं लगेगा।
क्या अब साफ होगी राजनीति
भारत देश में एक अजीब सोंच काम करती है कि जो जितना ज्यादा बाहुबली है, जो जितना ज्यादा ताकतवार और पैसे वाला है वही राजनीति में आ सकता है और जीत सकता है। ऐसी सोंच शायद इस लिए भी है क्योंकि इन प्रभावशाली लोगों से ही शायद जनता काम की उम्मीद करती है। पर ऐसा है नहीं। भारत देश में राजनीति में आप इन सब के बल पर दाखिल तो हो सकते हैं पर आप कभी राजनीति के उच्च पद पर बैठ नहीं सकते। जनता इतनी भी भोली नहीं। इधर कई वर्षों से यह देखने को मिला कि संसद हो या विधानसभा सभी जगह आपराधिक पृष्ठ के लोग जनता के प्रतिनिधि के रूप में प्रवेश कर रहे। अगर किसी के खिलाफ कोई मामला चल भी रहा है तो न्यायपालिका की लम्बी प्रक्रिया के चलते उसका कोई नुक्सान नहीं होता। हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति को स्वच्छ बनाने की अनेक पहल की है। उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए अब उसने हर हाईकोर्ट में एक विशेष बेंच बनाने का निर्देश दिया है, ताकि चुनाव याचिकाओं का जल्द-से-जल्द निपटारा हो। छत्तीसगढ़ में पराजित उम्मीदवार की याचिका पर निर्णय देते हुए जस्टिस जे. चेलामेश्वर और जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन की खंडपीठ ने कहा कि कोई सांसद या विधायक अवैध साधनों का इस्तेमाल करते हुए निर्वाचित हुआ हो, तो उसे एक दिन भी अपने पद पर नहीं रहना चाहिए। किंतु ऐसा बहुत कम होता है, जब निर्वाचित प्रत्याशियों के खिलाफ दायर चुनाव अर्जियों का निपटारा उनके कार्यकाल में हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में दो अहम बातें स्वीकार कीं। पहली यह कि इस देर से न्यायिक प्रक्रिया का मखौल उड़ता है और दूसरे यह कि इससे न्यायपालिका की आलोचना की वजह मिलती है, जिससे उसकी साख प्रभावित होती है। अब न्यायपालिका ने अपनी और विधायिका दोनों कि साख को सुरक्षित करने का प्रयास किया है। खंडपीठ का यह सुझाव भी स्वागतयोग्य है कि उच्च न्यायालयों में प्रस्तावित विशेष पीठ में शामिल न्यायाधीशों पर चुनाव अर्जी की सुनवाई पूरी होने तक दूसरे कामकाज का बोझ न डाला जाए। उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों ने अगर तत्परता से इन निर्देशों पर अमल किया तो देश एक बड़ी न्यायिक विसंगति से बच जाएगा। देश की राजनीति और न्यायपालिका के लिए सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय बेहद ही सराहनीय है। और शायद भारत देश की जनता इस निर्णय के चलते एक बेहतर राजनीति का स्वरुप देख सकेगी। इसका ध्यान ज़रुर रहे कि इस सपने को पूरा करने में आम जनता की भी भागीदारी है।
साहित्य का अस्तित्व
हिन्दुस्तान को साहित्य का देश कहा जाता है। शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां साहित्य को पसंद करने वाले लोग न हों। ऐसे में यही माना जाता है कि देश का साहित्य में भविष्य बहुत ही उज्जवल है। पर क्या ऐसा सही में है? क्या वाकई में साहित्य का जो स्तर रहा है भारत में अब भी वही है? शायद नहीं। हाल ही के कुछ वर्षों में साहित्य की लेखनी और उसकी पसंद में काफी हद तक बदलाव आ गया है। इसकी वजह भी है। जब देश में हिंदी भाषा को ही कई बार खतरे में ला कर रख दिया गया हो वहां हिन्दी साहित्य को कौन पढ़ना चाहेगा। जहां स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ही हिन्दी की पढ़ाई को मात्र औपचारिकता माना जाता हो वहां साहित्य का स्तर क्या होगा ये भी समझाने की ज़रुरत नहीं। इधर बीच कई साहित्य सम्मेलनों और कवि सम्मेलनों में जाना हुआ। जहां अमूमन हर कवि, शायर, साहित्यकार यही कहता नज़र आया कि देश में साहित्य का स्तर काफी गिरता जा रहा है। जिसमें खास तौर से हिंदी और उर्दू का साहित्य है। इसकी वजह को तलाशने कि कोशिश की तो पता चला अब भारत में युवा पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेते। दूसरा कि नेट क्रांति के चलते अब लोग ऑनलाइन ही पढ़ना पसंद करते हैं। ऐसे में हिंदी साहित्य ऑनलाइन उपलब्ध कम हो सका है। तीसरी सबसे बड़ी वजह साहित्य का बाजारवाद में शामिल होना। इसको लेकर तमाम बार बहस भी हो चुकी है और साहित्य क्षेत्र के लोगों ने भी इसपर घोर आपत्ति जताई है। उनके अनुसार अब साहित्य पढ़ने के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए लिखा जाता है। और साहित्य का बेचना भी एक प्रबंधन का रूप ले चूका है। इन परिस्थितियों को देखने के बाद तो यही लगता है कि अगर अब भी साहित्य को पैसे की जगह शाब्दिक और वैचारिक रूप से अमीर नहीं बनाया गया तो साहित्य भी इतिहास में गिना जाएगा। इसके लिए साहित्यकार, पाठक के साथ साथ सरकारें भी ज़िम्मेदार हैं जो साहित्य जगत की बढ़ोत्तरी के लिए सिर्फ औपचारिकता न पूरी करे बल्कि साहित्य जैसे गंभीर विषयों पर ठोस कदम उठाये। साहित्य विचोरों का संग्रह है और अगर विचार ही खत्म हो गए तो देश के सतत विकास का सपना सिर्फ सपना मात्र ही रह जाएगा।
बोझ उतना जितना बर्दास्त हो
2022 तक खत्म होगी गरीबी। संसद में जब आम बजट पेश करते वक्त वित्त मंत्री अरुण जेठली ने यह घोषणा की तो सभी विपक्ष की नींद ही उड़ गई। पक्ष ने खूब तालियां बजा कर इसका स्वागत किया। बेहतर है की आम बजट में गरीबी खत्म करने की बात की गई है। पिछले साठ साल से हम यही सुनते आये हैं हर बजट में कि गरीबी कम की जाएगी। पर अगर अब हम गरीबी खत्म करने की बात कर रहे तो शायद कुछ बेहतर ही है। परन्तु इस पर कई सवाल भी हैं कि आखिर यह होगा कैसे ? सिर्फ सदन में इतना कह देने भर से गरीबी खत्म नहीं होती। अगर ऐसे में विपक्ष यह कहता है कि ये सिर्फ काल्पनिक बजट है तो शायद गलत नहीं है। वित्त मंत्री जी आखिर बातें करके आप जनता को यह तो बताना चाहते हैं कि बीजेपी सिर्फ गरीबों और आम जनता के लिए काम कर रही है। पर उसकी एक ठोस रूपरेखा नहीं बताई आप ने। ये कहना भी गलत नहीं है कि बीजेपी ने इस बार के आम बजट में परंपरागत बजट पेश करने की औपचारिकता मात्र नहीं की है। लेकिन ऐसा कहना की वाकई में ये बजट पूरी तरह से आम जनता का है तो भी गलत ही होगा। मोबाइल फोन, पानी की बोतल, रेस्टोरेंट में खाना, दवाइयां जैसी चीजें महंगी होना। टैक्स में कोई रियायत न मिलने से आम जनता में निराशा है। इसके साथ ही सर्विस टैक्स में बढोतरी, 2 प्रतिशत स्वच्छ भारत टैक्स ने भी जनता पर बोझ बढ़ा दिया है। विपक्ष इन्ही मुद्दों को लेकर सरकार को घेरने का मन बना रही है। नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देश में सफाई और विकास पर जोर देते हुए हर योजनाएं बनाने की बात की थी ऐसे में इस तरह का आम बजट कहीं न कहीं उनकी बातों को पूरा करता तो दिखता है पर जनता पर इतना बोझ कही आप को आने वाले चुनावों में भारी न पड़ जाए। मोदी जी बीजेपी की सरकार पहली बार पूर्ण बहुमत से बनी है। इस बात का जरुर ख्याल रखें कि भारत की जनता अभी इतना बोझ सहने के लिए तैयार नहीं है।
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