रविवार, 8 अप्रैल 2018

साहित्य का अस्तित्व

हिन्दुस्तान को साहित्य का देश कहा जाता है। शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां साहित्य को पसंद करने वाले लोग न हों। ऐसे में यही माना जाता है कि देश का साहित्य में भविष्य बहुत ही उज्जवल है। पर क्या ऐसा सही में है? क्या वाकई में साहित्य का जो स्तर रहा है भारत में अब भी वही है? शायद नहीं। हाल ही के कुछ वर्षों में साहित्य की लेखनी और उसकी पसंद में काफी हद तक बदलाव आ गया है। इसकी वजह भी है। जब देश में हिंदी भाषा को ही कई बार खतरे में ला कर रख दिया गया हो वहां हिन्दी साहित्य को कौन पढ़ना चाहेगा। जहां स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ही हिन्दी की पढ़ाई को मात्र औपचारिकता माना जाता हो वहां साहित्य का स्तर क्या होगा ये भी समझाने की ज़रुरत नहीं। इधर बीच कई साहित्य सम्मेलनों और कवि सम्मेलनों में जाना हुआ। जहां अमूमन हर कवि, शायर, साहित्यकार यही कहता नज़र आया कि देश में साहित्य का स्तर काफी गिरता जा रहा है। जिसमें खास तौर से हिंदी और उर्दू का साहित्य है। इसकी वजह को तलाशने कि कोशिश की तो पता चला अब भारत में युवा पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेते। दूसरा कि नेट क्रांति के चलते अब लोग ऑनलाइन ही पढ़ना पसंद करते हैं। ऐसे में हिंदी साहित्य ऑनलाइन उपलब्ध कम हो सका है। तीसरी सबसे बड़ी वजह साहित्य का बाजारवाद में शामिल होना। इसको लेकर तमाम बार बहस भी हो चुकी है और साहित्य क्षेत्र के लोगों ने भी इसपर घोर आपत्ति जताई है। उनके अनुसार अब साहित्य पढ़ने के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए लिखा जाता है। और साहित्य का बेचना भी एक प्रबंधन का रूप ले चूका है। इन परिस्थितियों को देखने के बाद तो यही लगता है कि अगर अब भी साहित्य को पैसे की जगह शाब्दिक और वैचारिक रूप से अमीर नहीं बनाया गया तो साहित्य भी इतिहास में गिना जाएगा। इसके लिए साहित्यकार, पाठक के साथ साथ सरकारें भी ज़िम्मेदार हैं जो साहित्य जगत की बढ़ोत्तरी के लिए सिर्फ औपचारिकता न पूरी करे बल्कि साहित्य जैसे गंभीर विषयों पर ठोस कदम उठाये। साहित्य विचोरों का संग्रह है और अगर विचार ही खत्म हो गए तो देश के सतत विकास का सपना सिर्फ सपना मात्र ही रह जाएगा।    

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