जब कुछ भी समझ नहीं आता और लगातार काम करते करते थक जाने पर अकसर हम कुछ दिन का आराम लेते हैं और नए सिरे से काम करने की भूमिका बनाते हैं। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो अचरज सा हो। पर जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी से कुछ दिनों की छुट्टी मांगी यह कह कर की वो पार्टी के बेहतरी के लिए आत्म-मंथन करना चाहते हैं। तब राजनीति के सभी जानकार और राजनेता अचरज में पड़ गए कि आखिर ऐसी भी कोई छुट्टी होती है? पर जब परिस्थितियां असाधारण हों तो ऐसे अनोखे कदम को अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा, इसीलिए शायद अप्रैल में होने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के अधिवेशन से पहले राहुल गांधी के अवकाश पर जाने के निर्णय को काफी दिलचस्पी से देखा जा रहा है। इसकी वजह भी है और शायद राहुल गाँधी को इसकी ज़रुरत भी। कांग्रेस की पिछले लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त हुई, उसके बाद राज्यों में उसका आधार खिसकने का क्रम जारी रहा और इस महीने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में तो वह एक भी सीट जीतने में नाकाम रही। इसके बाद पार्टी के अंदर से आवाज उठने लगी कि कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट है। अगर अभी भी गंभीरता से नहीं सोंचा गया तो कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट और भी गहराता जाएगा। कांग्रेस की फिलहाल जो दिक्कत है वो यह है कि नीति एवं कार्यक्रम के मामले में वह भटकाव की शिकार है। और सबसे बड़ा सवाल कि आखिर ऐसी क्या वजह रही जो राहुल की तमाम कोशिशों के बावजूद भी कांग्रेस जनता के दिल में अपनी जगह नहीं बना सकी। राजनीति में अगर आप को जनता के दिल में जगह बनानी है तो आपको जनता के सामने उसके हित के कार्यों का एक खाका तैयार करके रखना होगा। वो भी ऐसा नहीं कि जो यथार्थ में विश्वास करने योग्य न हो। सिर्फ सत्ता की चाह और जुनून ही काफी नहीं होता। इस राजनैतिक कला में अन्य पार्टी के नेता राहुल गांधी से कहीं ज्यादा काबिल दीखते हैं। अब समय इतना ही है कि कांग्रेस अगर अब भी राहुल गाँधी के नेतृत्व में आगे बढ़ना चाहती है तो राहुल गांधी को कोई न कोई ऐसा सूत्र तैयार करना होगा जो कांग्रेस की डूबती नांव को उबार सके। परन्तु यदि राहुल इसमें विफल होते हैं तो कांग्रेस को अपने नेतृत्व बदलाव में देरी नहीं करनी चाहिए।
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015
आम जनता का बजट
अब इस बजट को संकटकाल का बजट कहिए या फिर देश की प्रगति का सकारात्मक बजट। जिस तरह से किराया न बढ़ाते हुए बीजेपी सरकार ने जनता को राहत देने कि बात की है। वहीं दूसरी तरफ मालभाडा बढ़ा कर महंगाई बढ़ने के संकेत भी दे दिए हैं। पूरे बजट को देखें बीजेपी सरकार ने टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने की बात की है। सुरक्षा को लेकर भी कडे कदम उठाये गए हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया फंड का इस्तेमाल करना सराहनीय कदम माना जा सकता है। दो महीने की बजाये 4 महीने पहले टिकट आरक्षित कराया जा सकता है। पांच मिनट में सामान्य टिकट मिलेगा। पब्लिक पार्टनरशिप पर जोर। यह सभी कदम बेहतर दिखाई देते हैं। ऐसे में इसे बेकार बजट की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता। विपक्ष इसको बेहतर नहीं मानती जैसा हर बार होता है। पर इस बार के बजट में कोई भी कमी नहीं निकाली जा सकी बस ये ज़रुर कहा गया कि बजट में सपने ज्यादा दिखाए गए हैं और यथार्थ में कुछ भी होना संभव नहीं दिखता। विरोध इस बात का भी किया जा रहा है कि आखिर क्या वजह है जो इतिहास में पहली बार बीजेपी सरकार ने कोई भी नई ट्रेन की घोषणा नहीं की है। ऐसे में सरकार पर सवाल उठ रहे। पर इस बात का ध्यान ज़रुर रखना चाहिए कि ट्रेन बढ़े या न बढ़े सुविधाएं ज़रुर बढाई जाएं। जिस प्रकार से सफाई को लेकर इस बार के बजट में जोर दिया गया है। साथ ही ई-फूडिंग की व्यवस्था, पीने का साफ पानी, बुजुर्गों और महिलाओं को लोवर बर्थ का कोटा आदि कई ऐसे कदम हैं जो बेहद ज़रुरी और अहम हैं। इनपर काम होना भी ज़रुरी है। अब बात सिर्फ इतने में ही नहीं सिमटनी चाहिए कि ये कार्य किये जायेंगे बल्कि इनका क्रियान्वयन भी हो इसका ध्यान देना मोदी जी को ज़रुरी है। हाल ही में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर चैतरफा घिरने के बाद ये ज़रुरी हो गया है कि जो भी वादे भारतीय जनता पार्टी अब कर रही है उस वह पूरा ज़रुर करे साथ ही कार्य दिखे भी। वरना जनता का भरोसा अगर उठा तो फिर उसे वापस लाने में बहुत दिक्कत होगी। बजट चुनावी हो या फिर परंपरागत, लाभ का केंद्र बिंदु आम जनता ही होनी चाहिए।
सबक लेना होगा
भूमि अधिग्रहण
अध्यादेश पर विरोध हुआ | धरना प्रदर्शन किया गया | सदन में विपक्ष ने भी खूब
हंगामा किया और सदन की कार्यवाही भी नहीं चलने दी | सरकार ने अपने कदम पीछे लिए और
अध्यादेश में संशोधन की बात पर सहमती बनाई | अच्चा हुआ ये विरोध किसी के भी अहम्
का मुद्दा नहीं रहा | अगर हम पुरे विरोध में देखें तो राजनितिक दल अन्ना हजारे के
साथ विरोध कर रहे थे | जन्तर मंतर से सरकार विरोधी खूब नारे लगे | और सरकार को
किसान विरोधी बताया गया | सही भी है गलत का विरोध होना भी चाहिए | २०१३ में
कांग्रेस द्वारा जब संसोधन बिल लाया गया था उस वक़्त बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय
अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था कि किसानों स ज़मीन लीज पर ली जाए न कि अधिग्रहित की
जाए | सुषमा स्वराज ने भी इसी बात को कहा था | पर जब खुद बीजेपी ने इसमें संशोधन
किया तब अपनी इस बात पर अमल क्यों नहीं किया | ऐसे में विरोध संभव था | पर पुरे
विरोध में सत्तरह राज्यों के किसान शामिल हुए और किसी ने भी किसी प्रकार का
उपद्रवी विरोध नहीं किया | नाराज़गी जताई , विरोध भी किया पर ढोल मंजीरे के साथ |
ये देश के वो लोग थे जिनकी समस्या को पूरा विश्व सबसे बड़ी समस्या मानता है | और
इनके भविष्य को लेकर चिंतित भी दिखता है | पर इनका विरोध का अंदाज़ को हम लोकतंत्र
के दुर्लभ पदयात्री कह सकते हैं | जिनका हज़ारों का हुजूम निकलता है तो एक पंक्ति
में , गाने बाजे के साथ , पुरे नियम का अनुपालन करते हुए और बिना किसी को कष्ट दिए
| ये अपना विरोध दरसाने निकलते हैं और हर १२ किलोमीटर दूरी तय करने के बाद १० मिनट
का आराम | वाह लोकतंत्र का बेहतरीन विरोध | आप की बात भी सुनी गई और कुछ रास्ता भी
निकलने की उम्मीद जगी | पर ऐसा सिर्फ आप से ही देखने को मिलता है ऐसा क्यों ? क्या
हमारे राजनितिक दल इससे कुछ सबक लेना चाहेंगे? ऐसा विरोध हमारे देश में कहीं और
क्यों नहीं देकने को मिलता |
अध्यादेश का अंधापन
बीजेपी सरकार का आम बजट सदन में पेश होना है। मगर सदन इतनी आसानी से चल सकेगी यह थोडा मुश्किल दिख रहा। सदन में विपक्ष का विरोध और सड़क पर अन्ना का विरोध चल रहा। बीजेपी सरकार को इसे संभालना इतना आसान नहीं होगा। इसका मुख्य कारण है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जो कि महज दो महीने पहले ही बीजेपी सरकार ने संसोधित कर लाया है। इससे पहले ये अध्यादेश 121 साल बाद बदल कर 2013 में कांग्रेस सरकार द्वारा लाया गया था जिसमें ज़मीन अधिग्रहण का प्रावधान बहुत ही जटिल कर दिया गया था साथ ही किसानों को दिए जा रहे मुआवजे की रकम भी बहुत बढ़ा दी गई थी। जिसका स्वागत सभी ने किया था। परन्तु बीजेपी सरकार द्वारा 2013 के अध्यादेश को संशोधित कर फिर से दिसम्बर 2014 में लाया गया। जिसमें भूमि अधिग्रहण के प्रावधान को जटिलताओं से हटाकर सरल यह कह कर किया गया कि देश की विकास गति को तेज़ करना है तो यह करना आवश्यक है। अगर हम किसानों की माने तो उनका विरोध इस बात का है कि सरकार भूमि अधिग्रहित न करे बल्कि किसानों से लीज पर ले तो न सरकार का नुक्सान है और न ही किसानों का।। अब मंगलवार को सदन में इसको लेकर बीजेपी ने बहस कर संसोधन करने की बात कही पर विपक्ष इसके पक्ष में ही नहीं है। उधर अन्ना के धरने को जंतर मंतर पर भी तमाम राजनितिक पार्टियों का समर्थन मिल रहा। इस पूरे प्रकरण में राजनितिक दल हो, अन्ना का अनशन हो या मीडिया हो। कोई भी इस कानून के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुवों पर चर्चा कम करके इसे एकतरफा विरोधी स्वरुप दिखा कर प्रस्तुत कर रहे। अगर हम इस पुरे कानून पर मोटा मोटा भी नज़र डालें तो इसमें इतनी पेचीदियां भी नहीं जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता। विरोध किसानों का अपनी जगह ठीक है पर इस पर राजनीति कहां तक सही है ? अगर सही मायनों में देखा जाए तो देश की विकास गति को बढाने के लिए जमीन की आवश्यकता है। पर अधिग्रहण ही एक मात्र रास्ता नहीं क्योंकि अधिकतर बार देखा गया है कि किसानों से ज़मीने तो विकास के लिए सरकार ले लेती है पर विभिन्न कारणों से अक्सर उस पर कोई कार्य नहीं होता और वो जमीन बेकार पड़ी रह जाती है। ऐसे में वो जमीन एक तय समय के बाद किसान को वापस करदी जाती थी। परन्तु बीजेपी सरकार द्वारा लाये गए अध्यादेश में किसान को वापस करने के नियम को खत्म कर दिया है। उसके अनुसार अगर कोई भी कंपनी विकास ज़मीन पर कोई कार्य नहीं कर पाती तो वह ज़मीन सरकार के पास चली जाएगी। दोनों पक्षों को देखें तो दोनों ही कई जगह सही और कई जगह गलत दिख रहे। ऐसे में ज़रुरत हंगामे की नहीं बल्कि आपस में बैठ कर कमियों को खत्म करने की है।
मुद्दों या संबंधों की राजनीति
कहते हैं की राजनीति की शुरुआत ही संबंधों से होती है | क्योंकि किसी भी राजनेता का भविष्य ही संबंधों
से है | हाल ही में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच संबंधों की एक
आधारशिला रखी गई | बीते दिनों ही लालू प्रसाद यादव अपनी सबसे छोटी बेटी का तिलक लेकर
मुलायम सिंह यादव के पैत्रक निवास सैफई पहुंचे | और मुलायम सिंह यादव के भाई के
बेटे तेज प्रताप सिंह को तिलक लगाया | जिस वक़्त ये रिश्ता तय किया गया था उस वक़्त
इसे राजनितिक रूप से भी बड़ा कदम बताया गया | कई तरह के कयास लगाये गए कि इन
संबंधों का लालू को और मुलायम को कितना फ़ायदा राजनीति में होगा | खैर बात आई गई
हुई और कयासों का क्या है सही बैठा तीर तो टीक नहीं बैठा तो ठीक | तिलक समारोह में
अगर नज़र डालें तो कई ऐसे मेहमान दिखे जिनका होना अप्रत्याशित ही लगता है | पर ये
राजनितिक नहीं पारिवारिक सम्बन्ध कहिये या फिर इसे शुद्ध अच्छी राजनीति | जिस तरह
से लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव हमेशा से ही बीजेपी को साम्प्रदायिक दल
का दर्ज़ा देते आये हैं | और नरेन्द्र मोदी को भी हर मौके पर विफल और देश के लिए
खतरा बताते आये हैं | वही नरेन्द्र मोदी तेज प्रताप सिंह के तिलक में मुख्य अतिथि
की भूमिका में उपस्थित थे | ये राजनितिक था या नहीं पता नहीं पर इससे २ बाते निकल
कर आती हैं | पहली की राजनीति में सब चलता है और सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं
| दूसरी बात कि राजनीति में सम्बन्ध को हमेशा अलग ही रखा जाता है | राजनीति कभी भी
संबंधों पर नहीं की जाती | दूसरी बात पर अगर गौर करें तो ये कहीं न कहीं भारत के
लोकतंत्र की बेहतर परिभाषा को बताता है | किसी भी देश के लिए यह बहुत ही आवश्यक
होता है की वहाँ की राजिनीति हमेशा से ही स्वस्थ होनी चाहिए और वो कभी भी
व्यक्तिगत न हो | ऐसा नहीं है कि भारत देश की राजनीति में ये पहले देखने को नहीं
मिला है | ऐसे अनगिनत मौके आये हैं जब हमे एक बेहतर और दल से उठ कर भारत की एक
विचारधारा वाली राजनीति देखने को मिली है फिर वो चाहे आतंकवादी हमला रहा हो या फिर
किसी भी राजनेता का व्यक्तिगत कोई भी उत्सव या जनता के हित का कोई भी मामला |
हमारे देश की राजनीति का ये पहलू हमेशा से ही इस लिए मज़बूत रहा है क्योंकि इसी
मजबूती पर देश का लोकतंत्र टिका है और हम आप की उम्मीदें भी |
अरे जरा संभल कर
राम मनोहर लोहिया जी
का कथन था कि युवा बात सुन कर नहीं बल्कि खुद अनुभव करके सीखता है | उनकी ये बात
शहर के युवाओं को देख कर चरितार्थ होती दिखती है | शहर की वो युवा पीढ़ी जो बाइक की
रफ़्तार को हवा से भी तेज़ रखना चाहती है | वो नहीं चाहती की कोई भी उनसे आगे चले |
वो इस दुनिया के सिकंदर हैं और देश उनको सलाम करता है | जहाँ तक सोंच की बात है तो
बहुत ही बढ़िया है | पर अगर उनके उद्देश्य को देखा जाए या यूँ कहें की उनके कार्य
को देखा जाए तो ये भविष्य के साथ साथ उनके वर्त्तमान को भी खतरे में डाले हुए है |
बहुत ज्यादा पुरानी बात न करूँ तो लखनऊ में ही अगर हम आप किसी भी स्कूल के बाहर
खड़े हो कर देखलें तो ज्यादा संख्यां में बच्चे १ ही बाइक पर ३-३ लोग बैठ कर हवा से
बाते करते नज़र आते हैं | इसके लिए तमाम मुहीम शासन ने चलाई और स्कूल प्रशां भी
इसको लेकर काफी संजीदा दिखे | पर शायद अभिभावक अभी भी इसको लेकर संजीदा नहीं हो
पाए हैं | जिस कारण से ऐसा अक्सर देखने को मिलता है | मुरादाबाद में क्रिकेटर
मोहम्मद अजरुद्दीन के बेटे की तेज़ रफ़्तार बाइक चलने की वजह से जान चली गई | उत्तर
प्रदेश के काबिना मंत्री के के बेटे की भी मौत हवा से भी ज्यादा तेज़ कार को चलने
में चली गई | ये तो वो मामले हैं जो कहीं न कहीं बड़े घरानों के लोगो के है पर ये
घटनाएं अब आम होती जा रही हैं | हाल ही में तेज़ बाइक चलने वाले युवाओं को रोकने के
लिए राजधानी पुलिस ने तमाम तरह के अंकुश लगाने वाले नियम बनाये पर शायद उनकी
रफ़्तार के आगे ये विवश हो गए | इस समस्या को ख़त्म करना अब तो मुश्किल सा लगता है
पर उम्मीद यही की जाती है कि ये रुके | और इसे भी रोकने की ज़िम्मेदारी सिर्फ
प्रसाशन की नहीं हमारी आप की भी है | क्यों की आप के बच्चे की हवा से बातें करने
की ये चाह भले गलत न हो पर जिस तरह से ये हवा से बाते करना चाहते हैं वो कहीं से
भी सही नहीं बताया जा सकता | दिक्कत आप को होगी या नहीं पर इस समाज को और समाज के
भविष्य को इससे काफी दिक्कत है और उम्मीद सिर्फ आप और हम |
बहस का मुद्दा विकास हो
इधर कई सालों से चुनाव में देखने को मिला की हर दल कुछ न कुछ नए तरीके अपनाती है जीत के लिए। पार्टी तो पार्टी नेता भी नायाब रंग में नजर आते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी का पहनावा हो , केजरीवाल की टोपी और मफलर हो या फिर मनमोहन सिंह की एक ही रंग की पगड़ी। इसके अलावा चुनाव के लिए हर पार्टी और नेता बाकायदा पैसे देकर लोगों को उनके प्रचार के लिए नए नए तरीके इजात करने के कहते हैं। पिछले साल ही बीते लोक सभा चुनाव में जिस तरह से बीजेपी ने अबकी बार मोदी सरकार जैसे नारों से जनता के बीच जाने में सफलता हासिल की वही जनता माफ न करेगी जैसे नारे भी खूब चले थे। इसका असर ये हुआ कि दिल्ली के चुनाव में आप पार्टी के नेता भी देश में मोदी दिल्ली में केजरी के नारे लगाने लगे। इसके साथ ही अगर हम एक और बदलाव देखें तो पाते हैं कि अब नेता भी अपने पहनावे को लेकर बड़े ही संजीदा हो गए हैं। जब 2014 में लोक सभा के नए सदस्य पहली बार संसद पहुंचे तो बहुतों के पहनावे चर्चा का विषय रहे। नरेन्द्र मोदी का पहनावा तो चुनाव के पहले भी चर्चा में था और आज भी वो चर्चा का विषय बना हुआ है। अरविन्द केजरीवाल का सादगी भरा लुक भी चुनाव के साथ ही चर्चा में बना हुआ है। स्टाइल, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘मोदी-सूट’ एक बड़े धमाके के साथ निरन्तर सुर्खियों में है। विश्व मीडिया तो दीवानों की तरह उस पर लिख ही रहा है, देश में बड़े पैमाने पर उस सूट पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। ‘आत्ममुग्ध’ होने का प्रमाण कहा जा रहा है। नरेंद्र दामोदरदास मोदी लिखी धारियों वाले उस सूट के फैब्रिक को लंदन से आयात किया गया बताया गया। 10 लाख रूपए में सिला गया। बराक ओबामा से मुलाकात के वक्त पहना गया मोदी नाम के सोने के धागे वाले सूट को दिल्ली के वोटरों ने अमीरी, अहंकार और अपमान माना’। ये कितना सही है पता नहीं पर प्रचार कुछ ऐसा ही हुआ। इसकी तुलना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल की ‘सादगी’ वाले कपड़ों से की गई। यह बहस भी चली कि मोदी दिन में तीन बार कपड़े बदलते हैं, जबकि केजरीवाल ‘एक कपड़े को तीन दिन तक चला लेते हैं।’ इन अफवाहों में कितनी सच्चाई है ये तो नहीं पता पर इन बातों को बहस का मुद्दा बनाकर हम कहीं न कहीं भारत देश की जनता से अभद्र मजाक ही कर रहे हैं। हम आप को इससे उठ कर विकास के मुद्दे पर बड़ी बहस करनी होगी। वरना जैसे इतने साल बीते विकास की आस में और भी बीत ही जायेंगे।
कौन जिम्मेदार
हाल ही में लखनऊ की पुलिस को हाईटेक रूप देने के लिए सरकार ने कई बड़े कदम उठाए। मॉडर्न पुलिस कण्ट्रोल रूम बनाया गया, हाईटेक गाडि़यां लगाई गईं। पुरे शहर में पीसीआर वैन लगाई गई। और राजधानी पुलिस को अत्याधुनिक सुविधाओं से लैश किया गया। फिर भी अपराध है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। इसकी वजह क्या है अगर इसपर गंभीरता से विचार किया जाए तो ये देखने को मिलता है कि जितना इसके लिए हम पुलिस को जिम्मेदार मानते हैं उससे कहीं ज्यादा हम आप भी जिम्मेदार है। लखनऊ शहर में मुख्यरूप से अगर कोई समस्या है तो वो है अपराध पर नियंत्रण। साथ ही यातायात को दुरुस्त करना। पर तमाम कोशिशों के बाद भी राजधानी पुलिस इसमें विफल हो रही। आखिर क्या कारण है ? क्या वाकई पुलिस अपना काम सही से नहीं कर रही ? या फिर इसके लिए हम आप कहीं गलती कर रहे ? शायद ये सही भी है की हम आप जरुर लखनऊ शहर को जाम मुक्त, अपराध मुक्त शहर के रूप में देखना चाहते हैं। पर कैसे होगा ये? तमाम बार पुलिस ने तरह तरह के अभियान चलाये। तमाम सामाजिक संगठनों ने भी तरह तरह से लोगों को जागरूक करने के कार्यक्रम चलाये। पर नतीजा सिफर ही रहा। दूसरी तरफ अपराध के बड़ते ग्राफ को देखा जाए तो ये भी एक बड़ी समस्या बना हुआ है। हम हर बार सरकार और पुलिस प्रसाशन को दोषी बता कर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर लेते हैं। पर क्या वाकई अपराध पर नियंत्रण का जिम्मा सिर्फ इन्ही दोनों पर है ? शायद नहीं। हम आप को भी इसके लिए जागरूक होना होगा। और अपने आस पास ऐसी कोई घटना न घटे इसके लिए संजीदा होना पड़ेगा साथ ही अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। ये जरुर है कि पुलिस की भागीदारी ज्यादा है इसकी रोकथाम के लिए पर हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। बेहतर होगा की अब सिर्फ सवाल उठाने का काम न कर हम आप भी जवाब देना शुरू करें। अपने बेहतर कल के लिए।
ये कैसी दोस्ती
कुछ सालों पहले की बात है जब ऑस्ट्रेलिया में भारतीय मूल के लोगों पर हमले हो रहे थे। कई भारतीय मारे भी गए। ये एक अजीब सी दुश्मनी थी। क्यों थी ये पता नहीं चल सका। एक फिल्म कुछ समय पहले देखी थी जिसमे की एक हिन्दुस्तानी परिवार को विदेश में इस कदर परेशान किया जाता है कि उस परिवार के लोग ही नहीं बल्कि वहां रह रहा हर हिन्दुस्तानी परिवार खौफजदा है। उस परिवार का एक लड़का जो कुछ ही समय पहले हिन्दुस्तान से उस देश में रहने जाता है उसको ये पसंद नहीं आता और वो उन विदेशियों से लड़ने लगता है। जो उसके परिवार को परेशान करते हैं। पूरी फिल्म इसी पर आधारित होती है। अंत में उस फिल्म में हिन्दुस्तानी लड़का उन विदेशी गुंडों को पचीसवें मुक्के में मार गिरता है। पूरी फिल्म में नफरत तो दिखाई गई पर कारण क्या था ये नहीं पता चल सका। अमेरिका में महाशिवरात्रि के दिन पता चला कि एक मंदिर में कुछ लोगों ने तोड़ फोड़ की और दिवार पे लिख दिया गेट आउट। फिर वही सवाल की आखिर क्यों ? हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत देश के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आये थे। उन्होंने भारत देश को एक बेहतरीन देश बताया। और ये माना भी जा रहा था कि अमेरिका और भारत के दोस्ती के ये हांथ जरुर पुरे विश्व के सामने एक मिसाल कायम करेंगे साथ ही दोनों ही देशों के लिए ये बेहतर कदम है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से जाते जाते ये जरुर कह गए कि भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनना चाहिए और धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं दिखना चाहिए। भारत से जाने के बाद भी उन्होंने एक बार फिर भारत की यात्रा के अनुभव बताते हुए इस वाक्य को दोहराया। ओबामा जी की ये बात वाकई में काबिलेतारीफ हैै। पर ओबामा जी ये बतायंे की जिस तरह से अमेरिका और भारत एक दुसरे की तरफ दोस्ती को घनिष्ट करने में लगे हुए हैं वहीं अमेरिका में मंदिर पर हुए हमले और गेट आउट जैसे शब्दों का प्रयोग कहा तक उचित है। क्या वाकई में हम एक दुसरे के करीब आ रहे? क्या वाकई में धर्म निरपेक्षता की कमी सिर्फ भारत में ही है अमेरिका में नहीं ? ये जरुर है की दोनों देशों की सरकारें रिश्ते मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं। पर क्या दोनों देशों के नागरिक धर्म निरपेक्ष हो कर एक दुसरे को अपना पा रहे हैं ?
क्या जीत गए हम
बधाई हो सभी को। आखिरकार एक बार फिर भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया। भाई वाह खेल खेल होता है और कुछ नहीं। खैर मेरा मुद्दा ये नहीं कि क्रिकेट के महामुकाबले में जीत किसकी हुई। मेरा मुद्दा है की आखिर ऐसा क्या है जो भारत और पाकिस्तान के मैच को हम खेल से कहीं ज्यादा मानने लगते हैं। ऐसा क्या होता है कि ये दो देशों के खिलाडियों के बीच का मैच नहीं रहता बल्कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के हर नागरिक के बीच का मैच हो जाता है। क्यों हम अभी भी भारत और पाकिस्तान के बीच के मैच को सिर्फ खेल की ही नजर से नहीं देखते हैं। क्यों हम अभी भी इसे देश के सम्मान से जोड़ कर देखते हैं। और भी देशों से भारत का मैच होता है पर तब हम इसे अपने देश की आन क्यों नहीं समझते। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आज भी पाकिस्तान से उतनी ही नफरत करते हैं जितनी आजादी के समय की थी? क्या आज भी हम राजनीतिक लड़ाई को अपनी व्यक्तिगत लड़ाई ही समझते आ रहे हैं। ये सच है कि सीमा पर पाकिस्तान की लगातार बढ़ रही नापाक हरकतें हमें उनसे दिल मिलाने को रोकती हैं। पर इसका ये मतलब भी नहीं कि खेल को भी हम उसी से जोड़ कर देखें। ये हो सकता है कि दूसरा मुल्क भी खेल से बढ़ कर देखता हो इसे पर इसका विपरीत भी हो सकता है। एक निजी न्यूज चैनल पर समाचार में देखने को मिला कि पाकिस्तान के लोग मैच हारने के बाद भी जश्न में नाच रहे थे। रिपोर्टर ने पूंछा तो एक बुजुर्गवार बोले क्या पाकिस्तान और क्या हिन्दुस्तान , भाई मैं तो पाकिस्तान से हूं और मेरी बीवी हिन्दुस्तान से। तो क्या हार क्या जीत हम तो दोनों में से किसी भी मुल्क के जीतने में खुश हैं। सुन कर अच्छा लगा और ये सुकून भी मिला कि चलो ये नफ्तर सिर्फ राजनीति के बीच की है और कुछ मुटठी भर आतंकवादियों की। इस लिए ये जरुरी है कि अगर हम आप दोनों देशों के बीच अमन की उम्मीद लागाये बैठे हैं तो हम आप को दोनों देशों के बीच खेले जा रहे किसी भी खेल को मुल्क की जीत हार से नहीं सिर्फ टीम की जीत हार माननी होगी।
उम्मीदों के साथ मुश्किलें भी हैं
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए हैं। दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग ने रामलीला मैदान में केजरीवाल को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। केजरीवाल के बाद मनीष सिसोदिया, असीम अहमद खान, संदीप कुमार, सत्येंद्र जैन, गोपाल राय और जीतेंद्र सिंह तोमर ने मंत्री के रूप में शपथ ली। शपथ ग्रहण के बाद रामलीला मैदान के मंच से केजरीवाल ने लोगों को संबोधित किया । उन्होंने कहा, हमें अहंकार से बचना होगा। लोकसभा चुनाव लड़ना हमारा अहंकार था। आने वाले पांच साल दिल्ली की सेवा करूंगा। राज्य के विकास में कोई कसर न छोड़ने का संकल्प लिया। उन्होंने दिल्ली को देश का पहला भ्रष्टाचार मुक्त राज्य बनाने का संकल्प भी लिया। अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए भी हर संभव प्रयास करने का संकल्प लिया। सभी पुलिस वालों और अधिकारियों को निर्देश देते हुए कहा कि अगर कोई टोपी वाला बदमाशी करता है तो उसे तुरंत जेल में डाल देना। कानून में जितनी सजा तय है, उससे दोगुनी सजा उसे देना। केजरीवाल के भाषण को सुनकर सभी जनता उम्मीदों से भरी हुई है। दिल्ली की जनता को लगता है की जिस तरह से केजरीवाल ने अपने पास एक भी मंत्रालय न रख कर जनता से सीधे संवाद करने और हर मंत्री के कामों की माॅनिटरिंग करने का जो प्रयोग किया है वो शायद बेहतर कदम है। साथ ही दिल्ली की जनता भी कहीं न कहीं केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार को पसंद नहीं कर रही थी। इस पर अरविन्द केजरीवाल का एजेंडा दिल्ली की जनता को भा रहा है। पर अगर अरविन्द केजरीवाल के एजेंडे को यतार्थ में ला कर देखा जाए तो शायद ये उतना भी आसान नहीं है जितना कि अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को बता रखा है। अगर हम देखें तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाना दिल्ली की सरकार को भले ही सही लग रहा हो पर इसका असर दिल्ली के विकास पर विपरीत पडेगा। पुरे देश में दिल्ली एक मात्र ऐसा राज्य है जिसे हर प्रदेश से ज्यादा फण्ड केंद्र सरकार देती है। क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है और इस पर केंद्र सरकार का विशेष ध्यान होता है। अब आइये वाईफाई और फ्री बिजली के मुद्दे पर तो पूरी दिल्ली में बिजली निजी कंपनी के माध्यम से दी जाती है और उस पर अपने नियम लगाना इतना आसान नहीं होगा। ऐसे में केजरीवाल जी आप से ये उम्मीद की जाती है की आप इन सभी विपरीत परिस्तिथियों के होते हुए भी अपने वादे को पूरा करने में कामयाब होंगे और दिल्ली के भरोसे को कायम रखेंगे। इस बात का जरुर ध्यान रखियेगा कि दिल्ली की जनता का मिजाज बार बार भरोसा करने का नहीं है।
दिल्ली के परिणाम से मंथन करे भाजपा
दिल्ली में बीजेपी की आप के द्वारा हुई हार ने कई सवालों को जन्म दिया है। जिस तरह से लोक सभा चुनाव जीतने के बाद ये माना जाने लगा गया था की मोदी और शाह की जोड़ी एक ऐसी जोड़ी है जिसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता। इस बात को सभी ने गंभीरता से लिया भी क्योंकि गुजरात में इस जोड़ी को कभी भी कोई परास्त नहीं कर सका। शायद इसीलिए लोक सभा चुनाव में भी इसी जोड़ी के भरोसे बीजेपी ने दांव खेला और वो सफल भी रहे। फिर क्या था बीजेपी का आत्मविश्वास अपने सातवें आसमान पर और इस जोड़ी ने पुरे देश में अपना करिश्मा दिखाने का मन बना लिया। अपेक्षा के अनुरूप परिणाम भी आये फिर वो चाहे महाराष्ट्र के चुनाव रहे हों या जम्मू कश्मीर झारखण्ड आदि प्रदेशों के चुनाव। पर इस बार दिल्ली में ये जोड़ी का जादू न चल सका। इसके लिए सिर्फ ये कह देना की आप का प्रदर्शन इतना अच्छा था कि बीजेपी उसके सामने टिक न सकी शायद गलत होगा। दरसल आप पर दांव पूरे विपक्ष ने लगा दिया था। वह शायद यह धारणा तोड़ना चाहता था कि चुनावों में नरेंद्र मोदी का चेहरा और अमित शाह का प्रबंधन अभेद्य हैं। एक हद तक विपक्षी दलों ने यह मकसद हासिल कर लिया है। मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा पहली बार परास्त हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर जब से उन्होंने भाजपा की कमान संभाली, पार्टी लगातार कामयाब हो रही थी। किंतु दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह रुझान पलट गया। क्यों? यह भाजपा के लिए आत्म-मंथन का विषय है। दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे 14 फीसदी वोट कम मिले हैं। इसके पहले झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में उसके वोट 9-9 फीसदी घटे थे। अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों मे वह लोकसभा में हासिल वोट प्रतिशत को बनाए रखने में सफल रही, इसीलिए यह सवाल उठेगा कि क्या लोगों ने केंद्र सरकार से जो ऊंची अपेक्षाएं की थीं, वे पूरी नहीं हो रही हैं? अब जाहिर है, विपक्ष अधिक आक्रामक मुद्रा के साथ इस धारणा को और गहरा बनाने के प्रयास करेगा। नतीजतन, नई परिस्थितियों का प्रभाव आर्थिक सुधारों के सरकार के एजेंडे पर पड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो ये वाकई बहुत ही गलत माना जायेगा। क्योंकि भाजपा विकास और सुशासन के लिए भारी जनादेश लेकर केंद्र की सत्ता में आई थी। सत्ता में आने के बाद से उसने इस दिशा में कई पहल की हैं, पर उनके ठोस परिणाम अभी नहीं दिखे हैं। इसपर समस्या खत्म होती तो बात भी ठीक थी पर कुछ नेताओं एवं भाजपा के सहयोगी संगठनों के अटपटे बयानों और गतिविधियों ने राष्ट्रीय चर्चा को भटकाया है। सोंचने का विषय यह है कि क्या दिल्ली में भाजपा के खिलाफ आए जनादेश की वजह ऐसे कारणों की भी भूमिका है?
मोहब्बत का तोहफा
किसी के दिल मिलेंगे किसी का दिल जीतेगा, कोई दुआ में मोहब्बत की सलामती चाहेगा तो कोई दुआ में जीत चाहेगा। कुछ ऐसा ही माहौल हो गया है इस साल। 14 फरवरी का दिन यूं तो मोहब्बत के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है पर इस बार यह दिन कुछ अलग और खास भी है। हो भी क्यों न आखिर एक दिवसीय क्रिकेट के 11वें विश्वकप का मुकाबला जो शुरू हो गया है। सोशल मीडिया हो या चाय की दूकान, हर जगह क्रिकेट की मोहब्बत और अपनी मोहब्बत दोनों के चर्चे साथ ही हो रहे हैं। अच्छा है। पर सिर्फ इसमें मोहब्बत ही नहीं बल्कि मुश्किल भी बहुत है। अब क्रिकेट लड़कों की पहली पसंद, फिर मोहब्बत भी है। आखिर किया जाये भी तो क्या ? इसी जद्दोजहत में फंसा है शहर का युवा। मुश्किल इतनी ही नहीं है की आखिर किसको कितना टाइम दिया जाए। मुश्किल इसकी भी है की आखिर भारतीय टीम क्या अपने फिलहाल चल रहे फॉर्म में विश्वकप को अपने ही पास रख पायेगी ? एक दिवसीय क्रिकेट के 11वें विश्वकप की शुरुआत के समय अपने विश्व चैंपियन खिताब की रक्षा कर पाने की महेंद्र सिंह धोनी की टीम की क्षमताओं पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। हाल में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के साथ त्रिकोणीय शृंखला में उसके खराब प्रदर्शन ने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के उत्साह पर पानी फेर दिया है। बेअसर गेंदबाजी सबसे बड़ी चिंता है। बल्लेबाज भी कुल-मिलाकर औसत प्रदर्शन ही कर पाए हैं। टीम लंबे समय से ऑस्ट्रेलिया में है। इससे खिलाडि़यों को वहां के वातावरण में ढलने का मौका तो मिला, लेकिन क्रिकेट के सबसे बड़े टूर्नामेंट से पहले वे थके-हारे नजर आने लगे हैं। फिर टीम में सचिन, सहवाग, युवराज, जहीर, हरभजन आदि जैसे मैच जिताने वाले खिलाड़ी नहीं हैं। मौजूदा टीम में विराट कोहली, कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और एक हद तक अंजिक्य रहाणे ही ऐसे खिलाड़ी हैं, जिनसे हर माहौल और परिस्थिति में समान प्रदर्शन की अपेक्षा की जा सकती है। इसके विपरीत ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका की टीमें मैच का नक्शा बदलने में सक्षम खिलाडि़यों से भरपूर हैं। न्यूजीलैंड की टीम ने हाल में जैसा शानदार प्रदर्शन किया है, उसके कारण उसे भी विश्वकप के दावेदारों में गिना जा रहा है। इस पूरी मुश्किल को देखते हुए अब क्रिकेट प्रेमी कितना समय अपनी मोहब्बत के लिए निकाल पाएंगे और कितना समय अपने देश की जीत की दुआ में दे पाएंगे ये तो पता नहीं। पर आप सभी को मोहब्बत की जीत का तोहफा मिले यही दुआ है हमारी। फिर वो चाहे दिल हो या फिर विश्वकप।
चुनाव में ही क्यों दिखता है सबका चरित्र प्रमाण पत्र
वैसे तो हमने राजनीति के तमाम रूप देखे हैं। कभी कोई नेता किसी अच्छे काम के लिए जाना गया है तो कभी कोई नेता अपने बुरे काम के लिए। कोई धनकुबेर के जाल में फंसा तो कोई चरित्र के फेर में। कौन कितना सही रहा और कितना गलत रहा इसका भी कोई अंतिम निर्णय न ही आ सका। पर ये ज़रुर रहा कि जब चुनाव आये तब तब हर पार्टी और हर नेता एक दुसरे का चरित्र प्रमाण पत्र लेकर साथ चलते हैं और उसी के बल पर अपनी जीत पक्की करना चाहते हैं। इसके लिए मुझे उदाहरण देने की ज़रुरत नहीं। ये कितना सही है और कितना गलत ये तय जनता खुद करे। मैं चुनाव के बाद के कुछ लम्हें आप से बाँटना चाहता हूँ। दिल्ली के चुनाव हुए और चुनाव खत्म होने तक हर नेता एक दुसरे को जितना ज्यादा से ज्यादा देश का दुश्मन बता सकता था बताता जा रहा था। फिर वो चाहे अरविन्द केजरीवाल हों ,राहुल गांधी हों, या खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। पर जैसे ही चुनाव के नतीजे आये हर पार्टी और नेता विरोध में कुछ भी बोलने के बजाये जीते हुए को बधाई दे रहे थे। नरेन्द्र मोदी ने ट्विटर से सबसे पहले बधाई दी और बाद में मिलकर बधाई दी। इसके साथ ही तमाम अन्य नेता भी अरविन्द केजरीवाल को बधाई दे रहे थे। आप सोंच रहे होंगे कि आखिर मैं आप को इससे क्या समझाना चाहता हूं। मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम राजनीति को सिर्फ खराब नज़र से ही न देखें क्योंकि चुनाव जीतने के लिए भले ही नेता अपनी हदें पार कर जाते हैं पर नतीजे आने के बाद के ये द्रश्य आपको और हमको अच्छी राजनीति का अहसास जरुर कराते हैं। हो भी क्यों न आखिर इसी लिए तो हम भारत देश के लोकतंत्र को इतना मजबूत मानते हैं। बस जरुरत इस बात की है अब इस राजनीति के स्वरुप को राजनेता इसी तरह हमेशा बनाये रखें और इसकी बेहतरी के लिए काम करें साथ ही हम आप भी राजनीति के इस स्वरुप को अच्छे नजरिए से देखें। अरविन्द जी आप को देश के दिल पर शासन करने के लिए बधाई और अन्य दलों को उनके इस अंदाज के लिए बधाई। आप इस देश के अगुवा हैं। आप जरुर इसकी गरिमा को समझते हैं। आप सभी के साथ साथ लोकतंत्र की इस परिभाषा को भी सलाम।
आप का ‘आप’ पर भरोसा
क्या सपा, क्या बसपा, क्या भाजपा और क्या कांग्रेस। हर दल के अन्दर शुन्यकाल की स्थिति दिख रही है। हर कोई आप की जीत को अभी तक वास्तविकता मन पा रहा है। हो भी कैसे दशकों से जिन्होंने राजनीती की है और अचानक एक पार्टी जिसमे कोई राजनीति का पुरोधा न हो वो चुनाव में अपनी ताकत झोंके और अप्रत्याशित जीत दर्ज कर देश के दिल पर राज करे तो विश्वास हो भी नहीं सकता। ये तो राजनीतिक विश्लेषण का मुद्दा है कि क्यों ऐसा हुआ आखिर क्या जनता चाहती है क्या संसदीय चुनाव और विधायकी के चुनाव में बड़ा अंतर होता है और न जाने क्या क्या। मैं यहां राजनीतिक बात नहीं करना चाहता बस दिल्ली के मिजाज को समझना चाहता हूँ और आप से भी समझने की उम्मीद करता हूं। आज से कुछ ही साल पहले जब दिल्ली में एक महाराष्ट्र से बुजुर्ग सिपाही देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अनशन पर बैठा तो उससे जुड़ने के लिए न केवल देश के लोग ही आये बल्कि पुरे विश्व से लोगों ने अपना योगदान देने के लिए समय निकाला। उसी दौरान एक दो बार मेरा वहां जाना भी हुआ तो बहुत से लोग उसे इस देश का एतेहासिक लम्हां बता कर इसे अपने कैमरे में कैद कर रहे थे। और न जाने क्या क्या। चलिए थोडा आगे की बात करते हैं। फिर अचानक वो पूरा समूह टूट जाता है और सब अलग अलग ठीक जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन की तरह। फिर थोडा और समय बीता राजनीति में न आने की कसम खाने वाले अरविन्द केजरीवाल अचानक से एक पार्टी बनाने की बात करते हैं और चुनाव में उतर जाते हैं। दिल्ली में बहुमत से कुछ कम सीटें और लोक सभा चुनाव में 4 सीटें जीत भी जाते हैं। पर अपनी साख खो चुके हैं ऐसा प्रतीत होता है। फिर चुनाव हुए और नतीजे आप के सामने हैं। इस बार जो हुआ वो किसी की भी समझ से परे है। पर चलिए जो हुआ अच्छा ही हुआ होगा। बस इतना देखना होगा की ये नतीजे अगर आप ने ‘आप’ के भरोसे पर ‘आप’ को दिया है तो ये जिम्मेदारी भी आप की ही होगी क्योंकि देश आप से ही उम्मीदें रखता है, आप देश की राजधानी की जनता हैं। और देश का रुख भी आप के ही रुख से बदलता है।
बधाई हो लखनऊ
सभी लखनऊ वालों को बधाई। आखिरकार जिस कलंक पर आप शर्मिंदा थे उस असफल प्रेमी को सजा दिलवाने में आप सभी ने खूब मदद करी। खूब मोमबतियां जलीं, खूब प्रदर्शन हुए, खूब रोष प्रकट हुआ सोशल मीडिया के माध्यम से भी हर संभव प्रयास हुए। पर अंत भला तो सब भला की कहावत को आप सभी ने चरितार्थ कर दिया। बधाई हो आप को। गौरी को इंसाफ दिला दिया आप ने। अब आप सभी मोहब्बत के इस सप्ताह का दिल खोल कर मजा लें। सुकून से रहें कोई फिल हाल ऐसा अब न करेगा। पर याद है क्या आप को वो कुछ महीने पहले की मोहनलालगंज की वो घटना जिसमे 2 मासूम बच्चों की मां का शव एक सरकारी स्कूल में नग्न अवस्था में पाया गया था? नहीं याद आया क्या ? अरे वही मामला जिसके लिए न जाने कितनी सामाजिक संस्थाओं ने अब बस के नारे लगाते हुए विरोध के सारे तरीके अपनाये। इन्साफ की गूंज उनकी इतनी थी की महिला के घर से लेकर पूरा लखनऊ उसे इन्साफ दिलाने के लिए सड़कों पर आ गया। सरकार को समझ आ गया था की किसी भी तरह इसे रोकना होगा वरना कैसे इस आक्रोश से निपटा जाए। सीबीआई जांच की सिफारिश की, एक चैकीदार को पकड़ा और हो गया खुलासा। पुलिस का काम पूरा अब कानून अपना काम करेगा। पर सवाल ये की क्या इतना जन आक्रोश इतना विरोध ये सब महज इतने से के लिए की पुलिस अपना काम करदे। वो सही है या गलत उसने अपना काम किया बस ? क्या इतने से इन्साफ मिल जाता है ? क्या हमारी इतनी ही मांग होती है ? अगर इतना ही निष्प्रभावी है प्रशासन तो क्यों उससे गुहार लगाना। और अगर ऐसा नहीं है तो फिर इतना जन आक्रोश किस बात का। सच है की हम सुरक्षित नहीं। पर इसका जिम्मेदार कौन? केवल प्रशासन या हम सब भी ? गौरी को इन्साफ मिला हर्ष को इन्साफ मिला उन दो बच्चों को इन्साफ कब ? जनता सवाल करना जानती है तो जवाब भी देना सीखे। क्योंकि ये मुद्दा सिर्फ सरकार से या प्रशासन से जुड़ा ही नहीं है हम आप से भी जुड़ा है। आज भी मोहनलालगंज चीख चीख कर इन्साफ की गुहार कर रहा। प्रशासन नहीं सुन पा रहा तो क्या हम आप भी नहीं सुन पा रहे। हम सुन कर उसे इन्साफ तो नहीं दे सकते पर क्या इस घटना से सीख कर दुबारा ऐसा न हो इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं। और अपनी आवाज तब तक बुलंद रखें जब तक उसे इन्साफ न मिल जाए। वरना कुछ एक घटनाओं का खुलासा कर पुलिस आप से यही कहेगी लो भाई कर दिया आप को दिया वादा पूरा अब तो कुछ नहीं बचा न, बधाई हो आप को......
चुनाव आयोग की भूमिका
चूँकि हम संवैधानिक परिपेछ में भारत में चुनाव सुधार की बात कर रहे है तो उपरोक्त दोनों पहलूवो में दूसरा पहलु आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है। क्यों की चुनाव कराने में चुनाव आयोग की भूमिका सबसे अहम होती है।
90 के दशक में देखे तो चुनाव आयोग की कार्यशैली में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन हमे देखने को मिला वह 12 दिसम्बर 1990 में मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी0 एन0 शेषन के समय में देखने को मिला। जिसके सकारात्मक परिणाम हमे वर्तमान के चुनावों में देखने को मिले है। परन्तु अब अगर हम इसके दुसरे पहलु को देखे तो हमे ये एक विडंबना ही दिखती है। की जनतंत्र में जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए प्रचार के माध्यमों से प्रोत्साहित करना पड़ता है। चुनाव आयोग मत प्रतिशत को बढाने के लिए साथ ही जनता की भागीदारी को बढाने के लिए संचार माध्यमो के हर तरह से प्रयोग कर रहा है। तथा ऐसा करके सफल होने को वो अपनी उपलब्धी मान रहा है। चुनाव आयोग के लिए तो ये जरूर उपलब्धि है परन्तु क्या इसे लोक तंत्र की उपलब्धी मना जाना चाहिए? सवाल ये है?
इस सवाल के कारण क्या है। उन पहलूवो पर ध्यान दे तो कुछ बाते सामने आती है। जैसे की सही उम्मीदवारों का चयन ना होना, जनता को हर चुनाव में अपने आप को ढगा सा महसूस करना, पार्टियों में भ्रष्टत्तंत्र होना, जनप्रतिनिधियों की जनता से दुरी होना, भ्रष्टाचार, अपराध, जातिवाद, कालाधन आदि। ये वो कारण है जो वर्तमान समय में पैदा नहीं हुए ना ही इन विषयो से कोई अनिभिज्ञ है। परन्तु समस्या ये है की इन कारणों को दूर करने के लिए अभी तक जितने भी कदम उठाए गए वो असफल तो नहीं परन्तु सफलता के अंतिम पायदान तक भी नहीं पहुँच पाए हंै। ऐसा भी नहीं की प्रयास नहीं किया गया परन्तु ये जरूर है की प्रयास पूरा नहीं हुआ।
अगर हम देखे तो समय समय पर चुनाव सुधार को लेकर तमाम तरह की चर्चाऐं एवम रपट सुनाने व देखने को मिलती रही है। तमाम सामाजिक संस्थानों ने भी चुनाव सुधार को लेकर आवाज बुलंद की है।
चुनाव सुधार के लिए चुनाव आयोग की सिफारिशे वर्त्मान में अमल में लाई दिखती है परन्तु सब नहीं। चुनाव में नकारात्मक मतदान की मांग. वापस बुलाने का अधिकार आदि को लेकर तमाम सामाजिक संस्थायें एक मंच पर आती दिखी और जनता भी कही ना कही उन्ही के समर्थन में दिखी।
1961 में बने चुनाव नियम का आचरण की धारा 49 ’ओ’ को लेकर तमाम मतदाता जागरूक दिखे। ऐसे में कही ना कही संसद पर यह दबाव बनता दिख रहा है की अब इसकी नितांत आवश्यकता है।
हम जाग गए?
ये तकरीबन आज से करीब 27 साल पहले की बात है प्रतापगढ़ के एक सरकारी काॅलनी में हम रहते थे। वहां की आबो हवा कैसी थी पता नहीं पर वहां एक बात थी कि अगर किसी के भी घर से किसी की रोने की हलकी सी आवाज आ जाये तो वो आवाज जिस जिस घर तक पहुँचती थी उस उस घर से कोई न कोई देखने जरुर आता था कि आखिर क्या हुआ। तकरीबन एक हजार लोगों की काॅलनी में ये कैसा सम्बन्ध था पता नहीं पर अच्छा था। चंद रोज पहले एक लड़की की हत्या लखनऊ शहर में हुई तो सारा शहर स्तब्ध हो गया पर शर्मिंदा कितना हुआ ये कोई नहीं जानता। कल कुछ लड़कियों ने इसके खिलाफ विरोध भी किया। याद रखें लड़कियों ने सिर्फ। कोई लड़की मायूस थी तो कोई गुस्से में थी किसी की आँखों में नमीं थी तो किसी की आँखों में आग थी। पर सब का सवाल ये था कि प्रशासन क्या कर रहा? क्यों सो रहा है प्रशासन? पर क्या वाकई में ये विरोध ये गुस्सा तहजीब के शहर का था? क्या वाकई ये गुस्सा प्रयोजित नहीं था? गौरी मैं प्रायोजित नहीं हूँ और न ही मेरी शर्मिंदगी। पर कल के आक्रोश को मैं इस शहर का आक्रोश नहीं मानता। ये प्रायोजित था। जिस स्कूल से वो पढ़ी थी वो स्कूल था। कुछ राजनैतिक दलों के नेता थे। बस ये शहर नहीं था। क्योंकि ये शहर शायद उसे इस शहर की बेटी नहीं मानता है। ये शहर इस घटना को आम घटना मानता है। ये शहर अब इन घटनाओं से नहीं जागने वाला। और अगर जागा भी तो बस चंद दिनों के लिए क्यों की हम गुस्से को भूलना जानते हैं। ये हमारी बेहतरीन कला है। अच्छा है चलो कुछ लोग इस घटना पे तो जागे हैं। वरना ना जाने कितने ऐसे भी मामले हुए जिसमें हमने जागने की जेहमत तक न उठाई। आप जागे हैं तो जागे रहियेगा। पर सिर्फ गौरी को इन्साफ दिलाने के लिए नहीं बल्कि किसी और गौरी को बचाने के लिए। एक बात गौरी मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि शुक्रिया गौरी। तुमने बहादुरी का काम किया किसी और गौरी के लिए अपनी जान दे दी।
शर्मिंदा होना भी टेक्नीकल हो गया है
एक तहजीब वाला शहर था जिसे नजाकत और नफासत का शहर भी कहते थे। आज उसे हम शर्मिंदा होने वाला शहर कहने पर मजबूर हैं। आज उस शहर को हम नजरें झुका कर नहीं नजरें गडा कर चलने वाला शहर कहते हैं। आज हम उसे तमाम तरह के त्योहारों और रंगों वाला शहर नहीं कहते आज हम उसे सिर्फ लाल रंगी शहर कहते हैं। इसे हम लखनऊ कहते हैं। पुलिस अपना काम करती है समाज अपना काम करता है सरकार अपना काम करती है पर फिर भी इस शहर का कोई काम ही नहीं सिवाये शर्मिंदा होने के क्यूँ ? क्या वाकई ये शहर बदल गया है ? क्या वाकई अब हम इसे उन शहरों की श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिए हैं जहां कोई भी सुरक्षित नहीं ? मैंने सुना था की लखनऊ तो वो शहर है जहाँ बिन मांगे लोग मदद करते हैं, बिन मांगे सलाह देते हैं, अगर गलती से भी किसी से पता पूंछ लो तो वो घर तक आपको पहुंचा के आएगा। पर क्या अब ऐसा नहीं रह गया है ? जिस शहर में साल में दो बार पड़ने वाले नवरात्री में हर गली मोहल्लों में मां गौरी के पंडाल लगते हों जहां मां गौरी की पूजा हर छोटा बड़ा एक साथ मिलकर करता हो और उसी शहर में गौरी का ये हाल हुआ हो जिसे हम बताने में भी शर्मिंदा हों। तो आखिर हम कितना शर्मिंदा होंगे? कब तक गौरी को मारेंगे उसके शरीर से खिलवाड़ करेंगे ? कब तक पुलिस को दोष देंगे की पुलिस अगर सावधान होती तो बच जाती गौरी ? कौन है ये गौरी? क्या वास्ता इसका हमसे आप से? ये मेरी तो न बहन थी न बेटी थी न बीवी थी मैं क्यूँ इसकी इतनी चिंता करूँ ? कुछ समय पहले मोहनलालगंज में अपने बच्चों के लिए 2 वक्त की रोटी जुटाने में मार दी गई एक महिला, फिर दोस्ती में गौरी मारी गई। वाह मेरे शहर लखनऊ। अब इस गौरी के लिए भी आइये मोमबत्ती जलाते हैं धरना देते हैं इसकी घोर निंदा करते हैं। फेसबुक और वाट्स एप पर प्रोफाइल फोटो में मोमबत्ती लगाते हैं। इतना करके हम बदलाव ले ही आयंगे शायद क्योंकि अब हम शर्मिंदा होने पर ऐसे की टेक्निकल विरोध करते हैं। और फिर हमारे बीच का ही कोई ऐसा कारनामा करेगा तो हम फिर ऐसे ही विरोध करेंगे। क्यों की अब शर्मिंदा होना भी टेक्नीकल हो गया है।
क्या वाकई बेदी मोदी का जादू चलेगा ?
गुजरात में लगातार तीन बार पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के बाद पुरे देश को लगने लगा की नरेन्द्र मोदी ने वाकई गुजरात में कमाल का काम किया है। गुजरात माॅडल ही देश के लिए बेस्ट माॅडल होगा। शायद इसी लिए लोक सभा के चुनाव में पुरे देश ने एक तरफा वोट करके बीजेपी को पहली बार पूर्ण बहुमत से जीत दिला कर इतिहास रच दिया। सारी पार्टियां ये समझ ही नहीं पा रही थीं कि आखिर क्या ऐसा किया जाए की मोदी मैजिक खत्म हो जाये। जो कभी नहीं हुआ वो भी बिहार में देखने को मिला की लालू और नितीश एक साथ एक मंच पर आये। पर उसके बाद भी मोदी के जादू को रोकना मानो इन सब के बस में ही नहीं रह गया। लोकसभा चुनाव के बाद भी विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से यह दिखा कि मोदी के राष्ट्रीय नेतृत्व में राज्यों के विधानसभा चुनाव जीते जा सकते हैं। महाराष्ट्र में चुनाव हुए या जम्मू कश्मीर में सब जगह बीजेपी ही निर्णायक पार्टी रही। पर अब जब दिल्ली के चुनाव की बारी है तो क्यों ऐसा लग रहा की बीजेपी को बहुत ही मजबूत टक्कर मिल रही। क्या वाकई आप पार्टी इस मजबूती के साथ काम कर रही कि वो चुनाव में कुछ बड़ा कर सकेगी। इसकी चिंता हम आप को ही नहीं बीजेपी को भी खाए जा रही शायद इसी लिए किरण बेदी को केजरीवाल के खिलाफ मुख्यमंत्री पद के लिए खड़ा किया गया है।
सर्वों की माने तो अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता में कमी तो आई है, पर वह सत्ता की दौड़ में कायम हैं। भाजपा और उनके बीच का अंतर ज्यादा का नहीं है। बेशक पिछली बार सत्ता जल्दी छोड़कर जाने के कारण आम मतदाताओं में उन्हें लेकर नाराजगी है, पर आम आदमी पार्टी द्वारा उठाए गए मुद्दों से वे सहमत हैं। विशेष रूप से राज्य के गरीब मतदाता और पिछड़े तबके के कामकाजी लोग आप को अपने बीच की ही एक पार्टी मानते हैं। जिस तरह किसी जमाने में ‘दमकिपा’ (दलित मजदूर किसान पार्टी) के नाम में जो जोर था, वही सम्मोहन अब ‘आप’ में सर्वहारा वर्ग के लिए है। ऐसे में जमी-जमाई पार्टियों के लिए आप की चुनौती से पार पाने के लिए बड़े चेहरे की तलाश स्वाभाविक है। और यही कारण रहा कि बीजेपी को अपने दिल्ली के सभी पुराने नेताओं को दर किनार कर अरविन्द केजरीवाल की ही पुरानी साथी किरण बेदी को उनके खिलाफ लाना पड़ा। ये प्रयोग भी कितना काम करेगा इसका पता चुनाव के निर्णय आने के बाद ही चलेगा।
दिल्ली का दिल क्या कहता है
भारत देश की राजधानी यानी कि दिल वालों की दिल्ली में माहौल पूरा चुनावी रंग में रंगा हुआ है। दिल्ली वैसे तो कोई अपनी एक संस्कृति के लिए नहीं बल्कि देश की हर संस्कृति हर रंग को अपने में समाये हुए है। जहां हर घर देश के अलग अलग प्रान्त से दिल्ली आये उम्मीदों का घर है। तो राह में चलता हर इंसान सिर्फ ये सोंचता है की इस महीने घर कितना पैसा भेजना है। देश की संसद भी वहीं है लिहाजा हर बड़ा नेता अपनी राजनीतिक करियर को बेहतर से बेहतर रखने की जुगत में रहता है। फिल हाल दिल वालों की दिल्ली में माहौल पूरा चुनावी हो गया है और देश की नहीं पुरे विश्व की निगाहें इस चुनाव पर हैं इसके कई कारण हैं। पुरे देश की किसी भी घटना पर इसी दिल्ली ने एक बार नहीं कई बार लोकतंत्र की आवाज़ को बुलंद किया है। देश का कोई भी मुद्दा हो दिल्ली की राय सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। हर विकास का केंद्र बिंदु यही दिल्ली ही है। लोकतंत्र के 4 स्तंभों का भी केंद्र बिंदु यही है। ऐसे में यहां की जनता क्या चाहती है किस तरह का बदलाव चाहती है इन सभी सवालों का जवाब सिर्फ राजनितिक पार्टियां ही नहीं बल्कि सारा देश जानना चाहता है। शीला दीक्षित को इस प्रदेश ने लगातार 3 साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाये रखा पर अन्ना और अरविन्द केजरीवाल का आन्दोलन न जाने क्या जादू कर गया इन पर की शीला अपनी ही सीट हार गईं और कांग्रेस का बिलकुल ही सफाया हो गया जिसको इस प्रदेश की जनता ने अपने नेता के रूप में चुना वो भी महज 49 दिनों में ही चलते बने तमाम विरोध हुए और लोग इधर से उधर हुए और जिन जिन के लिए यह जनता एक हुई वो सभी अब अलग अलग दल में अपना राजनीतिक करियर को बनाने में जुट गये हैं पर इस प्रदेश की जनता का हाल फिलहाल उस कबीरा की तरह हो गया है जो ना तो काहू से दोस्ती कर पा रहा है और न काहू से बैर। रोज़ हर दल के बड़े बड़े दिग्गज जनता को अपने पाले में करने में जुटे हैं। कहीं कोई अपने को ज़मीनी नेता बता रहा तो कोई इस देश का सबसे बड़ा विकास का माॅडल। पर इस बार दिल वालों की दिल्ली का मूड क्या है उसका दिल क्या कहना चाहता है ये कोई भी नहीं जान पा रहा। शायद इसी लिए हम इसे अपनी राजधानी मानते है अपना केंद्र बिंदु मानते हैं। अच्छा है दिल्ली वालों हम भी इसी इंतज़ार में है की दिल्ली का दिल आखिर क्या चाहता है ।
देश के रंगरेज रंग बदल रहे हैं
३३ विधान सभा और
विधान परिषदों के स्पीकर और सचिव हाल ही में लखनऊ के विधान भवन में एक साथ ७७वीं
स्पीकर्स कांफ्रेंसे में एकत्र हुए | ये कांफ्रेंसे कम एक क्लास ज्यादा दिख रही थी
वो भी किसी ऐसे स्कूल की तरह जहाँ अक्सर टीचर यही कहते हैं की ये क्लास बहुत शैतान
है | और इस क्लास की टीचर थीं लोक सभा अध्यक्ष सुमित्रा ताई | वो पूरी तरह से
क्लास ऐसी ले भी रहीं थी मानो वाकई ये स्कूल हो | जिस तरह से स्कूलों में टीचर
बच्चों को क्लास क्लास में बैठने , क्लास के अन्दर के व्यवहार आदि को बच्चों को
बताती है टीक वैसे ही यहाँ भी सुमित्रा ताई सभी विधायकों व सभा में बैठे सभी लोगों
को संसद और विधान भवन के अन्दर के काएदे कानून समझा रहीं थी | ये ज़रूर था की ४०३
सदस्यों वाली विधान सभा में ५०० विधायेकों वाली विधान सभा में बहुतेरी सीटें खाली
ही रहीं पर क्लास की शिक्षा हमें बहुत कुछ आशाएं दे गई | सदन की कई ऐसी
कार्यवाहियां याद आती है जहाँ कई बार ये देखने को मिला कि वाह यही वो सदन है जिसे
हम सुनना चाहते हैं और हाँ इन्ही सांसदों की ज़रुरत इस देश को है और लोक तंत्र की
मजबूती भी यही है | पर कुछ ऐसे भी सदन हुए जिसने हमें ना जाने कितना शर्मिंदा किया|
कभी कुर्सियां चली तो कभी माइक फेंके गए | कभी वेल में घुस कर स्पीकर पर स्याही
फेंकी गई तो कभी कागज़ के गोले, नोट उछले कागज़ फटे न जाने क्या क्या पर इस सम्मलेन
के हुई चर्चा न जाने क्यों हर बार की चर्चाओं से अलग और बेहतर दिखी | जिस तरह से
एक रंगरेज़ कपड़ों के रंग बदल कर उसको एक नया रूप नए कलेवर में ला कर उसे खूबसूरत
बना देता है ठीक उसी तरह से इस देश के रंगरेज़ यानी की संसद और विधानसभा के सदस्य
भी देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर को नए अंदाज़ में सजाने की जो बात कर रहे थे
वो वाकई बहुत उम्मीदों का जनक है | जहाँ अनुशासन हीनता पर दंड की बात है तो
बेहतरीन काम करने के लिए बेस्ट एमएलए का अवार्ड देने की भी बात है | जहाँ ई
गवर्नेंस की बात हो रही पेपर लेस सदन की बात हो रही हो वहां रंग बदलना तो तये भी
है | बस यही उम्मीद हम आप से करते हैं की ये साड़ी बातें जो इस बार सम्मलेन में हुई
हैं वो बातें शाम को रेखा भारद्द्वाज के बेहतरीन संगीत में आप के साथ खो न गई हो
और वहां से आगे निकल कर हमें भी एक नए रंग और रूप के साथ सदन मिले |
क्या लड़कियों कि तरह रोते हो
मेरे पड़ोस मे रहने
वाले महरोत्रा साहभ
बडे ही खुश मिजाज़
के व्यक्ति है और
जीवन से संतुस्ट भी है| उन्हे
उपर वाले से किसी भी
तरह की कोई शिकायत
नहीं| और भला हो भी क्यों
उनके पास किसी चीस
की कमी नहीं| अच्छी खासी
बैंक की नौकरी| उनकी धरम पत्नी भी
स्कूल मे टीचर
हैं|
और कम संतान सुखी
इंसान को मानने वाले
मेहरोत्रा साहब के
सिर्फ एक लड़की है
जो बारवीं कक्षा की
छात्र है| मेहरोत्रा साहब
आधुनिक सोंच रखते हैं उनकी
माता को पोते की
कमी हमेशा खलती है
पर मेहरोत्रा साहब
बेटा बेटी मे फर्क नहीं
समझते और अपनी बेटी
को वो बेटा मानते
है| यही बात वो
सारे समाज को सिखाना भी
चाहते है|
एक दिन
हमारी कालोनी मे रहने
वाला मनोज नौकरी न
मिलने से दुखी हो
कर पार्क मे बेटा
रो रहा था की
अचानक मेहरोत्रा साहब
की उस पर नज़र
पड़ी और वो उसे समझाने
पहुँच गए| काफी देर तक
उन्होने मनोज को खूब
समझाया| बड़ी बड़ी बाते की और न जाने
क्या क्या| पर एक
बात जो मनोज को
बार बार अखर रही थी
वो थी की क्या
लड़की की तरह रोते
हो मर्द हो हिम्मत
से काम लो और
आगे बड़ो| जब मनोज ने उन्हे इसके
लिए टोका तो वो बिना
कुछ कहे वहाँ
से चले
गए मनोज का कहना
कुछ हद तक ठीक भी
था एक तरफ आप
लड़का लड़की मे फर्क
नहीं करते और बार
बार लड़की को कमजोर होने
का उदाहरण देते जा
रहे हैं |
ये कहानी
सिर्फ मेहरोत्रा साहब
या मनोज की ही
नहीं है बल्कि ये
हर इंसान की कहानी
है आज विकास के इस
दौर मे जहां
हर कोई
महिला समानता के अधिकार
की लड़ाई लड़ रहा है
वो महिलाओ को नौकरी
में, घर में, समाज में,
जगह जगह एक समान
अधिकार दिलाना चाहता है| इस
विषय पर बड़ी बड़ी
बहस होती है न्यूज़
चैनलो पर भी अक्सर
इस विषय पर बहस का
सिलसिला चलता है और
बडे बडे विचार रखे जाते
हैं पर सच क्या है
यही की हम दिखावे
मे कोशिश तो बहुत कर
रहे हैं पर अपनी मानसिकता
को नहीं बदल पा
रहे हैं |
अगर हम
कभी भी गौर करे
तो अक्सर किसी रोते हुए
आदमी को कोई व्यक्ति
चाहे वो पुरुष हो
या स्त्री संत करता
है थो वो यही
कहता है की क्या
लडकियों की तरह रोते हो
ये बात यही साबित
करती है की आखिर
हम महिला समानता के
लिए कितने जागरूक हैं और
गंभीर हैं|
लब्बो लुआब
अगर देखे तो यही है
की अगर आप वाकई
महिला समानता का दम
भरते है तो सिर्फ नौकरी
ससुराल या समाज मे
एक बराबर उतने बीतने
का अधिकार दिलाना कोई
बहादुरी नहीं| जरूरत है
की पहले व्यक्ति मानसिकता
मे बसी इस तरह
की छोटी बातो को
ख़तम करे कहते भी
है की-
हम परिपक्व तब
नहीं होते जब हम
बड़ी बड़ी बाते बोलने
लगते है बल्कि हम
परिपक्व तब होते है
जब हम छोटी छोटी
बाते समझने लगते हैं |
और विकास
परिपक समाज से ही
संभव है|
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