देश को उसका संविधान जिस दिन मिला, जिस दिन देश को लोकतान्त्रिक देश का दजऱ्ा मिला उसका जश्न हर एक इंसान ने बस 2 दिन पहले ही बनाया है। अच्छी बात है 66 साल बाद आज भी हम अपने इस जश्न को मनाते हैं और यही उम्मीद भी करते हैं की ये जश्न हम आने वाले हजारों साल तक इसी जोश और खरोश के साथ मनाते रहें। पर क्या वाकई ये जश्न हम दिल से मानते हैं ? क्या वाकई जिस संविधान की दुहाई देते हुए हम इस जश्न में सराबोर रहते हैं उसको हम अपने कार्यों में भी इस्तेमाल करते हैं ? बस 1 महीना और 2 दिन पहले की बात करें तो जिस तरह से उत्तर प्रदेश के पुलिस मुखिया के चयन में प्रदेश सरकार इस कदर उलझ गई की 2014 वर्ष का आखरी दिन बिन पुलिस मुखिया के पुरे प्रदेश ने साल का आगाज़ किया। और अगले दिन मिला भी मुखिया तो बस 1 महीने के लिए। इस पूरी घटना ने कई सवालों को जन्म दिया की क्या यह पद औपचारिकता मात्र है ? क्या कुछ ऐसी ही व्यवस्था बनाने की जटिलताएं हमारे संविधान ने दी हैं? क्या इस संविधान से उठ कर सरकार होती है ? या फिर की इस देश की जनता की सुरक्षा उसके हाँथ में होनी चाहिए न की औपचारिक पुलिस मुखिया के मातहतों के हाँथ ? जैसा की हम कई देशों में देखते हैं की वहाँ पर पुलिस का चुनाव वहां की जनता करती है और उसकी पूरी जवाबदेही उस जनता के प्रति होती है। हो सकता हो वहां ये बहुत ही सफल हो और हमारे देश में ऐसा न हो। हम एक लोकतान्त्रिक देश में है जहाँ हमारे द्वारा चुनी सरकार ही हमारे हितों और सुरक्षा का ख्याल रखती है। पर इसका ये मतलब नहीं की हमारे द्वारा दिए गए ये अधिकार का वो इस तरह से इस्तेमाल करें। अमेरिका के बाद किसी और देश में अगर प्रथक्करण के सिद्धांत का संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णन है तो वो है भारत देश जहाँ अनुच्छेद 50 में इसे बताया गया है जिसके अनुसार कार्यपालिका और विधायिका को बिलकुल अलग रखने की बात की गई है। पर जिस तरह से हमारे देश में कार्यपालिका के उच्च पदों पर कौन बैठेगा ये इस आधार पर तय न किया जाता हो की उसका कार्य कितना बेहतर है क्या वाकई वो इस का सही तरह से निर्वहन करेगा तब तक हम कैसे कह सकते है की हाँ हम देश के इस पवित्र ग्रन्थ संविधान का सही से अंगीकार किये हैं और इसके अधिकारों के साथ साथ कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे तब तक हम लोकतान्त्रिक हैं ये कहना कितना सही है जनता इसे ज़रुर तये करे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें