शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

दिल्ली के परिणाम से मंथन करे भाजपा

दिल्ली में बीजेपी की आप के द्वारा हुई हार ने कई सवालों को जन्म दिया है। जिस तरह से लोक सभा चुनाव जीतने के बाद ये माना जाने लगा गया था की मोदी और शाह की जोड़ी एक ऐसी जोड़ी है जिसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता। इस बात को सभी ने गंभीरता से लिया भी क्योंकि गुजरात में इस जोड़ी को कभी भी कोई परास्त नहीं कर सका। शायद इसीलिए लोक सभा चुनाव में भी इसी जोड़ी के भरोसे बीजेपी ने दांव खेला और वो सफल भी रहे। फिर क्या था बीजेपी का आत्मविश्वास अपने सातवें आसमान पर और इस जोड़ी ने पुरे देश में अपना करिश्मा दिखाने का मन बना लिया। अपेक्षा के अनुरूप परिणाम भी आये फिर वो चाहे महाराष्ट्र के चुनाव रहे हों या जम्मू कश्मीर झारखण्ड आदि प्रदेशों के चुनाव। पर इस बार दिल्ली में ये जोड़ी का जादू न चल सका। इसके लिए सिर्फ ये कह देना की आप का प्रदर्शन इतना अच्छा था कि बीजेपी उसके सामने टिक न सकी शायद गलत होगा। दरसल आप पर दांव पूरे विपक्ष ने लगा दिया था। वह शायद यह धारणा तोड़ना चाहता था कि चुनावों में नरेंद्र मोदी का चेहरा और अमित शाह का प्रबंधन अभेद्य हैं। एक हद तक विपक्षी दलों ने यह मकसद हासिल कर लिया है। मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा पहली बार परास्त हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर जब से उन्होंने भाजपा की कमान संभाली, पार्टी लगातार कामयाब हो रही थी। किंतु दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह रुझान पलट गया। क्यों? यह भाजपा के लिए आत्म-मंथन का विषय है। दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे 14 फीसदी वोट कम मिले हैं। इसके पहले झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में उसके वोट 9-9 फीसदी घटे थे। अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों मे वह लोकसभा में हासिल वोट प्रतिशत को बनाए रखने में सफल रही, इसीलिए यह सवाल उठेगा कि क्या लोगों ने केंद्र सरकार से जो ऊंची अपेक्षाएं की थीं, वे पूरी नहीं हो रही हैं? अब जाहिर है, विपक्ष अधिक आक्रामक मुद्रा के साथ इस धारणा को और गहरा बनाने के प्रयास करेगा। नतीजतन, नई परिस्थितियों का प्रभाव आर्थिक सुधारों के सरकार के एजेंडे पर पड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो ये वाकई बहुत ही गलत माना जायेगा। क्योंकि भाजपा विकास और सुशासन के लिए भारी जनादेश लेकर केंद्र की सत्ता में आई थी। सत्ता में आने के बाद से उसने इस दिशा में कई पहल की हैं, पर उनके ठोस परिणाम अभी नहीं दिखे हैं। इसपर समस्या खत्म होती तो बात भी ठीक थी पर कुछ नेताओं एवं भाजपा के सहयोगी संगठनों के अटपटे बयानों और गतिविधियों ने राष्ट्रीय चर्चा को भटकाया है। सोंचने का विषय यह है कि क्या दिल्ली में भाजपा के खिलाफ आए जनादेश की वजह ऐसे कारणों की भी भूमिका है?

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