राजस्थान के मुख्य सचिव और पुलिस
महानिदेशक को हाई कोर्ट की फटकार सुननी पड़ी। इसलिए कि गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति
के लोगों ने हफ्ते भर से दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग और जयपुर-आगरा राजमार्ग पर परिवहन
रोक रखा है, मगर इस अलोकतांत्रिक व्यवहार के लिए एक भी आंदोलनकारी की गिरफ्तारी
नहीं हुई। राजस्थान उच्च न्यायालय ने दोनों रास्तों से सारी रुकावटों को तुरंत
हटाने का आदेश दिया, लेकिन गुरुवार को भी मुसाफिरों को राहत नहीं मिली।
मुमकिन है कि कोर्ट की इच्छा का पालन
इस वजह से नहीं हुआ हो कि प्रशासन भारी भीड़ पर ताकत का इस्तेमाल नहीं करना चाहता
हो। मगर सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग के समर्थन में किरोड़ी
सिंह बैसला के नेतृत्व वाली गुर्जर समिति गुजरे आठ वर्षों से आंदोलन चला रही है।
इस दौरान अनेक बार इसी तरह परिवहन को रोका गया है। इस बीच राजस्थान में भारतीय
जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की सरकारें रहीं। किंतु उन्होंने कोई सबक नहीं
लिया।
ऐसी तैयारी नहीं की गई, जिससे परिवहन या
गुर्जर बहुल इलाकों में आम जीवन को अस्त-व्यस्त होने से रोका जा सके। नतीजतन, इस बार विगत 21-27 मई के बीच
प्रभावित मार्ग पर 208 ट्रेनें रद्द करनी पड़ीं, जबकि 109 का रास्ता बदला गया। इससे यात्रियों
को हुई परेशानी का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रभावित सड़क मार्ग पर तोड़-फोड़
की घटनाएं भी हुई हैं। बहरहाल,
हाई कोर्ट ने भले इस घटनाक्रम के
कानून-व्यवस्था वाले पक्ष पर अपना ध्यान केंद्रित रखा, परंतु मूल समस्या
राजनीतिक है। प्रमुख राजनीतिक दल यह कहने का साहस नहीं दिखाते कि गुर्जर समुदाय के
लिए अलग से पांच प्रतिशत आरक्षण संभव नहीं है, क्योंकि इससे कुल आरक्षित सीटों की
संख्या 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सीमा के
मुताबिक ऐसा नहीं किया जा सकता। इसी आधार पर अतीत में हाई कोर्ट ने गुर्जर आरक्षण
के फैसले पर रोक लगाई थी। यह साफ-साफ कहने की बजाय विपक्ष में रहने पर पार्टियां
आरक्षण देने का वादा करती रही हैं। सत्ता में आने पर बेबस नजर आती हैं। दूसरे राज्यों
में जाट और मराठा आरक्षण के संदर्भ में भी राजनीतिक दलों का ऐसा दोहरापन सामने आया
है, लेकिन अब समय आ गया है, जब सभी दल जातीय भावनाओं की सियासत से
बाज आएं। वरना ऐसे आंदोलनों से होने वाली परेशानी के लिए लोग उन्हें ही दोषी
मानेंगे और ऐसा करना वाजिब भी होगा।
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