कुछ दिन पहले एक होटल के कर्मचारी 2 पत्रकारों को पिट देते हैं। कहा जाता है कि वो वसूली करने के लिए आये थे। फिर सारे पत्रकार एक जुट दिखते हैं और होटल को बंद करने की मांग के साथ सभी आरोपियों को जेल भेजने की जिद पर धरना देने लगते है। मामला शांत नहीं होता रात में एक और पत्रकार पर जान लेवा हमला होता है। फिर रोष फिर गुस्सा और दोषियों को सजा की मांग। कुछ दिन और बीते एक वकील पर बम से हमला होता है और उसकी मौत हो जाती है। अगले दिन इस हमले की सजा असल आरोपी को मिली हो न मिली हो पर शहर के हर इंसान इसकी सजा मिली। सारी कहानियों को देखिये तो लगता है की जब यही नहीं सुरक्षित तो आखिर कौन है सुरक्षित। ऐसा नहीं की पहले पत्रकारों और वकीलों पर हमले नहीं हुए। या उनकी हत्याएं नहीं हुईं। पर सवाल यही की आखिर ऐसा क्यों कि इन सब पर हमले में इतना बवाल और आम इंसान के मरने पे नहीं? इनकी महत्ता को देखते हुए इनके साथ जब ऐसा है तो आम जनता को तो उम्मीद ही त्याग देनी चाहिए। सवाल मॉडर्न पुलिसिंग पर भी उठते है। पत्रकारिता का पेशा हो या वकालत का दोनों को ही हम बुद्धजीवी वर्ग का पेशा मानते हैं यहां ज्ञान की बातें होती हैं। सरस्वती की पूजा का कर्म असल में इन्हीं दो पेशे में है। और जब ज्ञान के ऊपर ही इस तरह के हमले होने लगे हैं तो कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि इन पेशों में ज्ञान की पूजा नहीं शक्ति की पूजा होने लगी है या फिर ज्ञान से शक्ति को कष्ट होने लगा है। उम्मीद यही की जा सकती है कि ये दोनों ही पेशों के पहरेदार अपना आत्मिक चिंतन और मंथन करें और इस तरह लगातार बढ़ रहे हमलों को रोकने का प्रयास करें। जनता आप से ये उम्मीद कतई नहीं करती की आप उसकी सरल जीवन जीने के तरीके में चक्का जाम करें। विरोध हो पर इस तरह नहीं की जनता की सांस टूटे और कोई अपनी पहली साँस भी इस जाम के साथ ले।
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