एक तहजीब वाला शहर था जिसे नजाकत और नफासत का शहर भी कहते थे। आज उसे हम शर्मिंदा होने वाला शहर कहने पर मजबूर हैं। आज उस शहर को हम नजरें झुका कर नहीं नजरें गडा कर चलने वाला शहर कहते हैं। आज हम उसे तमाम तरह के त्योहारों और रंगों वाला शहर नहीं कहते आज हम उसे सिर्फ लाल रंगी शहर कहते हैं। इसे हम लखनऊ कहते हैं। पुलिस अपना काम करती है समाज अपना काम करता है सरकार अपना काम करती है पर फिर भी इस शहर का कोई काम ही नहीं सिवाये शर्मिंदा होने के क्यूँ ? क्या वाकई ये शहर बदल गया है ? क्या वाकई अब हम इसे उन शहरों की श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिए हैं जहां कोई भी सुरक्षित नहीं ? मैंने सुना था की लखनऊ तो वो शहर है जहाँ बिन मांगे लोग मदद करते हैं, बिन मांगे सलाह देते हैं, अगर गलती से भी किसी से पता पूंछ लो तो वो घर तक आपको पहुंचा के आएगा। पर क्या अब ऐसा नहीं रह गया है ? जिस शहर में साल में दो बार पड़ने वाले नवरात्री में हर गली मोहल्लों में मां गौरी के पंडाल लगते हों जहां मां गौरी की पूजा हर छोटा बड़ा एक साथ मिलकर करता हो और उसी शहर में गौरी का ये हाल हुआ हो जिसे हम बताने में भी शर्मिंदा हों। तो आखिर हम कितना शर्मिंदा होंगे? कब तक गौरी को मारेंगे उसके शरीर से खिलवाड़ करेंगे ? कब तक पुलिस को दोष देंगे की पुलिस अगर सावधान होती तो बच जाती गौरी ? कौन है ये गौरी? क्या वास्ता इसका हमसे आप से? ये मेरी तो न बहन थी न बेटी थी न बीवी थी मैं क्यूँ इसकी इतनी चिंता करूँ ? कुछ समय पहले मोहनलालगंज में अपने बच्चों के लिए 2 वक्त की रोटी जुटाने में मार दी गई एक महिला, फिर दोस्ती में गौरी मारी गई। वाह मेरे शहर लखनऊ। अब इस गौरी के लिए भी आइये मोमबत्ती जलाते हैं धरना देते हैं इसकी घोर निंदा करते हैं। फेसबुक और वाट्स एप पर प्रोफाइल फोटो में मोमबत्ती लगाते हैं। इतना करके हम बदलाव ले ही आयंगे शायद क्योंकि अब हम शर्मिंदा होने पर ऐसे की टेक्निकल विरोध करते हैं। और फिर हमारे बीच का ही कोई ऐसा कारनामा करेगा तो हम फिर ऐसे ही विरोध करेंगे। क्यों की अब शर्मिंदा होना भी टेक्नीकल हो गया है।
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